अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 4/ मन्त्र 40
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - अध्यात्मम्
छन्दः - आसुरी गायत्री
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
स य॒ज्ञस्तस्य॑ य॒ज्ञः स य॒ज्ञस्य॒ शिर॑स्कृ॒तम् ॥
स्वर सहित पद पाठस: । य॒ज्ञ: । तस्य॑ । य॒ज्ञ: । स: । य॒ज्ञस्य॑ । शिर॑: । कृ॒तम् ॥७.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
स यज्ञस्तस्य यज्ञः स यज्ञस्य शिरस्कृतम् ॥
स्वर रहित पद पाठस: । यज्ञ: । तस्य । यज्ञ: । स: । यज्ञस्य । शिर: । कृतम् ॥७.१२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 4; मन्त्र » 40
भाषार्थ -
(सः) वह सविता (यज्ञः) यज्ञ है, (तस्य) उस सविता का (यज्ञः) यज्ञ है, (सः) वह सविता (यज्ञस्य) यज्ञ का (शिरः कृतम्) सिर रूप में कल्पित किया गया है।
टिप्पणी -
[वेदों में संसार को शरीररूप मान कर, और संसार के घटक अवयवों को अङ्गरूप मान कर, इन्हें परमेश्वर के शरीर रूप में और अङ्गों के रूप में वर्णित किया है। यथा अथर्व० १०।७।१८-३४; तथा यजु० ३१।११-१३)। संसार और परमेश्वर में शरीर-शरीरिभाव का वर्णन यह दर्शाने के लिये हुआ है ताकि यह अनुभव किया जा सके कि जैसे अस्मदादि जीवनों में शरीर और शरीराङ्ग, चेतन जीवात्माओं के ज्ञान, इच्छा, तथा प्रेरणाओं द्वारा सक्रिय होते हैं, वैसे संसार और संसारावयव भी किसी विभु चेतन के ज्ञान, इच्छा तथा प्रेरणाओं द्वारा ही प्रेरित तथा सक्रिय हो रहे हैं। परन्तु इस से कहीं यह न समझ लिया जाय कि परमेश्वर वस्तुतः शरीरधारी है, इस लिये कहा कि "तस्य यज्ञः" अर्थात् यज्ञ उस का है, वह यज्ञ रूप नहीं है, वह यज्ञ का स्वामी है। इसे और स्पष्ट किया है कि "स यज्ञस्य शिरस्कृतम्", वह संसार का "सिर रूप" है। सिर प्रेरक है शरीर और शरीर के अंङ्गो का। इसी प्रकार परमेश्वर संसार और संसार के अंङ्गो का प्रेरक है। [शिरस्कृतम् = सिर रूप में कल्पित किया गया है]। परमेश्वर के सम्बन्ध स्पष्ट कहा है कि "अकायम्, अव्रणम्, अस्नाविरम्" (यजु० ४०।१८)।