अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 4/ मन्त्र 10
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - अध्यात्मम्
छन्दः - प्राजापत्यानुष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
तस्ये॒मे नव॒ कोशा॑ विष्ट॒म्भा न॑व॒धा हि॒ताः ॥
स्वर सहित पद पाठतस्य॑ । इ॒मे । नव॑ । कोशा॑: । वि॒ष्ट॒म्भा: । न॒व॒ऽधा । हि॒ता: ॥४.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्येमे नव कोशा विष्टम्भा नवधा हिताः ॥
स्वर रहित पद पाठतस्य । इमे । नव । कोशा: । विष्टम्भा: । नवऽधा । हिता: ॥४.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 4; मन्त्र » 10
भाषार्थ -
(तस्य) उस सविता के (इमे) ये (नव) नौ (कोशाः) कोश हैं, (विष्टम्भाः१) जो कि सविता को थामे हुए हैं, और (नवधा) नौ प्रकार से (हिताः) स्थापित किये हैं।
टिप्पणी -
[परमेश्वर के थामने के स्थान, (बृहदा० उप० अ० ३। ब्रा० ७। खण्ड ३-२३)। नव कोशाः = अन्नमय (शरीर); प्राणमय (जिसे कि मारुतोगण कहा है (मन्त्र ८), मनोमय (मन, संकल्प-विकल्पात्मक), आनन्दमय (आनन्दमयी चित्तवृत्ति, सम्प्रज्ञात योग की विशेषावस्था, योग १।१७), विज्ञानमय (ज्ञानेन्द्रियां, बुद्धि, चित्त, अहंकार और जीवात्मा) ये ५ विज्ञानमय कोश हैं, अर्थात् ज्ञान के साधन और आधार हैं। ये नवकोश सविता परमेश्वर को थामे हुए हैं, और नौ प्रकार से अलग-अलग स्थापित हैं२]। [१. जो परमेश्वर जगदाधार है, द्युलोक और भू लोक को थामे हुए है, "स्कम्भेनेमे विष्टभिते द्यौश्च भूमिश्च तिष्ठतः।" (अथर्व० १०।८।२), उसे शारीरिक ९ कोश थामते हैं-यह कथन यद्यपि संगत प्रतीत नहीं होता। तो भी इस का अभिप्राय यह है कि संसार में कोई ऐसा पदार्थ नहीं, सिवाय इन नौ कोशों के समूह के, जहां परमेश्वर साक्षात् अनुभूत हो सके, और उच्चकोटि के योगी जब चाहे अन्तर्ध्यानी होकर परमेश्वर के दर्शन पा सकें। इस लिये ९ कोशों के समूह को सविता के "विष्टम्भाः" कहा है। २. सुर्यपक्ष में ९ कोश = बुध, शुक्र, पृथिवी, मङ्गल, बृहस्पति, शनि, युरेनस (वरुणम्), नेपचून, चन्द्रमा। ये ९ कोष है जो कि सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाते हैं और जिन के मध्यवर्ती सूर्य है, अतः सूर्य के कोश है। इन द्वारा आकृष्ट किया सूर्य निज स्थान में विष्टब्ध हुआ है, थामा हुया है। अथवा चन्द्रमा के स्थान में "उल्का समूह" की गणना करनी चाहिये, जो कि मंगल और बृहस्पति के मध्य में गति करते हैं, जो कि पाश्चात्य ज्योतिषियों के अनुसार ग्रहरूप थे, और किसी कारण इस ग्रह के फट जाने से अब उल्कारूप (meteors) हो गए हैं, जो कि रात्रि में टूटते तारा के रूप में कभी-कभी दृष्टिगोचर होते हैं। इन्हें उल्कापात कहते हैं।]