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अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 12
सूक्त - आत्मा
देवता - जगती
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
सं का॑शयामिवह॒तुं ब्रह्म॑णा गृ॒हैरघो॑रेण॒ चक्षु॑षा मि॒त्रिये॑ण। प॒र्याण॑द्धंवि॒श्वरू॑पं॒ यदस्ति॑ स्यो॒नं पति॑भ्यः सवि॒ता तत्कृ॑णोतु ॥
स्वर सहित पद पाठसम् । का॒श॒या॒मि॒ । व॒ह॒तुम् । ब्रह्म॑णा । गृ॒है: । अघो॑रेण । चक्षु॑षा । मि॒त्रिये॑ण । प॒रि॒ऽआन॑ध्दम् । वि॒श्वऽरू॑पम । यत् । अस्ति॑ । स्यो॒नम् । पति॑ऽभ्य: । स॒वि॒ता । तत् । कृ॒णो॒तु॒ ॥२.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
सं काशयामिवहतुं ब्रह्मणा गृहैरघोरेण चक्षुषा मित्रियेण। पर्याणद्धंविश्वरूपं यदस्ति स्योनं पतिभ्यः सविता तत्कृणोतु ॥
स्वर रहित पद पाठसम् । काशयामि । वहतुम् । ब्रह्मणा । गृहै: । अघोरेण । चक्षुषा । मित्रियेण । परिऽआनध्दम् । विश्वऽरूपम । यत् । अस्ति । स्योनम् । पतिऽभ्य: । सविता । तत् । कृणोतु ॥२.१२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 12
भाषार्थ -
(अघोरेण, मित्रियेण, चक्षुषा) अक्रूर और मैत्रीपूर्ण अर्थात् स्नेहमयी दृष्टि के साथ वर्तमान (ब्रह्मणा) निज वेदवित् पुरोहित तथा (गृहैः) गृहवासियों की सहायता द्वारा (वहतुम्) वधू को (सं काशयामि) वधू का पिता मैं सम्यक् विधि से सुशोभित कराता हूं। (पर्याणद्धम्) पहिना हुआ, तथा (स्योनम्) सुखकर (विश्वरूपम्) नाना प्रकार के रूपों वाला (यत्) जो वस्त्र तथा आभूषण (अस्ति) है, (सविता) कन्या का जन्मदाता पिता (तत्) उसे अर्थात् वस्त्र आदि को (पतिभ्यः) कन्यापक्ष के रक्षकों के (कृणोतु) सुपुर्द कर दे।
टिप्पणी -
[वहतुम् = मन्त्र में इस का अर्थ वधू प्रतीत होता है (देखो, मन्त्र १४।२।९)। वहतुम् लाक्षणिक प्रयोग है। वहतुम्= वहतुस्थितां वधूम्। यथा मन्चाः क्रोशन्ति = मञ्चस्थाः पुरुषाः क्रोशन्ति। अस्ति=आपस्तम्ब में अस्ति के स्थान में "अस्याम्" पद पठित है, जोकि वधू का निर्देश करता है। इसलिये आपस्तम्ब की दृष्टि में पर्याणद्धम् तथा विश्वरूपम् द्वारा वधू के वस्त्र तथा आभूषण अभिप्रेत है। आनद्धम्= Dressing, cutting on clothes, etc. (आप्टे) अथर्ववेद के अंग्रेजी में व्याख्याकार WHITNEY टिप्पणी में लिखते हैं कि "The commentator to Apostambe understands of the ornaments worm by the bride, as indicated by the reading asyam (अस्याम्) काशयामि = काशृ दीप्तौ] [व्याख्या- कन्या-प्रेषण के लिए, कन्या का पिता कन्या को विधिवत् आभूषणों से अलङ्कृत करवा कर वरपक्ष के रक्षकों अर्थात् पति तथा श्वशुर आदि के सुपुर्द कर दे, ताकि मार्ग में उन आदि के गुम हो जाने की आशङ्का न रहे।]