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अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 50
सूक्त - आत्मा
देवता - उपरिष्टात् निचृत बृहती
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
या मे॑प्रि॒यत॑मा त॒नूः सा मे॑ बिभाय॒ वास॑सः। तस्याग्रे॒ त्वं व॑नस्पते नी॒विंकृ॑णुष्व॒ मा व॒यं रि॑षाम ॥
स्वर सहित पद पाठया । मे॒ । प्रि॒यऽत॑मा । त॒नू: । सा । मे॒ । बि॒भा॒य॒ । वास॑स: । तस्य॑ । अग्ने॑ । त्वम् । व॒न॒स्प॒ते॒ । नी॒विम् । कृ॒णु॒ष्व॒ । मा । व॒यम् । रि॒षा॒म॒ ॥२.५०॥
स्वर रहित मन्त्र
या मेप्रियतमा तनूः सा मे बिभाय वाससः। तस्याग्रे त्वं वनस्पते नीविंकृणुष्व मा वयं रिषाम ॥
स्वर रहित पद पाठया । मे । प्रियऽतमा । तनू: । सा । मे । बिभाय । वासस: । तस्य । अग्ने । त्वम् । वनस्पते । नीविम् । कृणुष्व । मा । वयम् । रिषाम ॥२.५०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 50
भाषार्थ -
हे पत्नी! (या) जो (मे) मेरी (प्रियतमा) अत्यन्त प्रिय (तनूः) देह है, (सा) वह (मे) मेरी देह (बिभाय) सरदी तथा गरमी से भय करती है, इस लिये (वनस्पते) वनों और खेतों की स्वामिनी हे पत्नी! (त्वम्) तू (अग्रे) पहिले (तस्य वाससः) उस वस्त्र के (नीविम्) मूलधन अर्थात् वल्कल-कपास आदि को (कुणुष्व) एकत्रित कर, ताकि (वयम्) हम (मा) न (रिषाम) कष्ट भोगें तथा विनष्ट हों।
टिप्पणी -
[नीविम्=मूलधनम् (उणा० ४।१३७); तथा Capital, Principal stock (आप्टे)। वनस्पते= वन की पत्नी। उपवनरूप में खेतों की पत्नी अर्थात् स्वामिनी। वनस्पतिः= वनानां पाता वा पालयिता वा (निरु० ८।२।३), अर्थात् वनों का रक्षक या पालक। मन्त्र में वस्त्र निर्माण की सामग्री को एकत्रित करने का वर्णन है। अगले मन्त्र में वस्त्र निर्माण का वर्णन हुआ है।]