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अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 63
सूक्त - आत्मा
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
इ॒यं नार्युप॑ब्रूते॒ पूल्या॑न्यावपन्ति॒का। दी॒र्घायु॑रस्तु मे॒ पति॒र्जीवा॑ति श॒रदः॑ श॒तम्॥
स्वर सहित पद पाठइ॒यम् । नारी॑ । उप॑ । ब्रू॒ते॒ । पूल्या॑नि । आ॒ऽव॒प॒न्ति॒का । दी॒र्घऽआ॑यु: । अ॒स्तु॒ । मे॒ । पति॑: । जीवा॑ति । श॒रद॑: । श॒तम् ॥२.६३॥
स्वर रहित मन्त्र
इयं नार्युपब्रूते पूल्यान्यावपन्तिका। दीर्घायुरस्तु मे पतिर्जीवाति शरदः शतम्॥
स्वर रहित पद पाठइयम् । नारी । उप । ब्रूते । पूल्यानि । आऽवपन्तिका । दीर्घऽआयु: । अस्तु । मे । पति: । जीवाति । शरद: । शतम् ॥२.६३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 63
भाषार्थ -
(इयम्) यह (नारी) वधू (पूल्यानि) फुल्लियों अर्थात् लाजाओं की (आ वपन्तिका) आहुतियां देती हुई (उपब्रूते) कहती है कि (मे) मेरा (पतिः) पति (दीर्घायुः) दीर्घ आयु वाला (अस्तु) हो, (शतम्) सौ (शरदः) सरदियों अर्थात् वर्षों तक (जीवाति) जीवित रहे।
टिप्पणी -
[पूल्यानि=पंजाब में फुल्लियां बोलते हैं। पारस्कर गृह्यसूत्रों में पूल्यानि के स्थान में “लाजान्” पठित है। यथा “इयं नार्युपब्रूते लाजानावपन्तिका”] [व्याख्या- पारस्कर गृह्यसूत्रों के अनुसार यह लाजाहोम है। हिन्दी में लाजाओं को खीलें तथा पंजाबी में फुल्लियां कहते हैं। ये भूने हुए व्रीहि अर्थात् धान होते हैं। आयुर्वेद में खीलों को पथ्य-भोजन माना है। वेद में व्रीहि और यव [जौ] को प्राण और अपान कहा है। “प्राणापानौ व्रीहियवौ” (अथर्व० ११।४।१३)। तथा व्रीहि और यव के सेवन से यक्ष्मरोग का विनाश होता है। यथा “शिवौ ते स्तां व्रीहियवावबलासावदोमधौ। एतौ यक्ष्मं वि बाधेते एतौ मुञ्चतो अंहसः१”॥ (अथर्व० ८।२।१८)। लाजाएं भी सम्भवतः यक्ष्म तथा अंहस् का विनाश करने वाली है, अतः वधू लाजाहोम द्वारा पति की दीर्घायु चाहती है, और सौ वर्षों तक उस का जीवन।] [१. व्रीहि (चावल) और यव (जौं) बल का निरसन नहीं करते, और अदन अर्थात् खाने में मधुर होते हैं। ये दोनों यक्ष्मरोग के होने में बाधक होते हैं, ये दोनों दुःखप्रद रोग से छुड़ाते हैं। अदोमधौ=अदसि (भक्षणे)+मधु। अबलासौ=आ+बल+अस् (क्षेपणे)।]