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अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 13
सूक्त - आत्मा
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
शि॒वानारी॒यमस्त॒माग॑न्नि॒मं धा॒ता लो॒कम॒स्यै दि॑देश। ताम॑र्य॒मा भगो॑ अ॒श्विनो॒भाप्र॒जाप॑तिः प्र॒जया॑ वर्धयन्तु ॥
स्वर सहित पद पाठशि॒वा । नारी॑ । इ॒यम् । अस्त॑म् । आ । अ॒ग॒न् । इ॒मम् । धा॒ता । लो॒कम् । अ॒स्यै । दि॒दे॒श॒ । ताम् । अ॒र्य॒मा । भग॑: । अ॒श्विना॑। उ॒भा । प्र॒जाऽप॑ति: । प्र॒ऽजया॑ । व॒र्ध॒य॒न्तु॒ ॥२.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
शिवानारीयमस्तमागन्निमं धाता लोकमस्यै दिदेश। तामर्यमा भगो अश्विनोभाप्रजापतिः प्रजया वर्धयन्तु ॥
स्वर रहित पद पाठशिवा । नारी । इयम् । अस्तम् । आ । अगन् । इमम् । धाता । लोकम् । अस्यै । दिदेश । ताम् । अर्यमा । भग: । अश्विना। उभा । प्रजाऽपति: । प्रऽजया । वर्धयन्तु ॥२.१३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 13
भाषार्थ -
(शिवा) कल्याणी (इयम्) यह (नारी) नारी, (अस्तम्) पति के घर (आ अगन्) आई है। (धाता) जगत् के धारण करने वाले परमेश्वर ने (अस्यै) इस नारी के लिए (इमम्, लोकम्) यह पतिगृह (दिदेश) निर्दिष्ट किया है। (अर्यमा) जगत् के स्वामी परमेश्वर को जानने वाला, तथा (भगः) ऐश्वर्य आदि से सम्पन्न, और (प्रजापतिः) उत्पन्न होने वाली सन्तानों की पालना और रक्षा करने में समर्थ पति, तथा (अश्विना उभा) पति के दोनों माता-पिता (ताम्) उस नारी को (प्रजया) सन्तानों द्वारा (वर्धयन्तु) बढ़ाएं।
टिप्पणी -
[अर्यमा (१४।१।३९)। भगः (१४।१।५१)। अश्विना (१४।१।१४)। दिदेश, दिश् = To allot, to give grant.] [व्याख्या- वधू जब पतिगृह में प्रवेश करे तब गृहपुरोहित कहे कि यह नारी शिवरूपा है, कल्याणस्वरूपा है जो कि इस घर में आई है तथा कहे कि पति-पत्नी के इस सम्बन्ध को विधाता ने निश्चित किया है इस लिये इस सम्बन्ध को बुद्धिमत्ता से स्थिर, पवित्र तथा आनन्दमय बनाए रखना चाहिये। विवाह के अनन्तर पतिगृह पर पत्नी का भी स्वामित्व हो जाता है जितना कि पति का है। पति में तीन गुण होने चाहियें। वह परमेश्वर को मानने वाला हो, आस्तिक हो। वह ऐश्वर्य आदि से सम्पन्न हो। अपनी सन्तान की पालना और रक्षा कर सकने में समर्थ हो, तथा प्रजा वृद्धि कर सके। पत्नी की वास्तविक वृद्धि है उस की गोद में सन्तानरत्नों का होना। क्योंकि सन्ताने ही विवाह में मुख्य लक्ष्य है। आत्मिक तथा उत्पादनशक्ति से सम्पन्ना नारी]