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अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 56
सूक्त - आत्मा
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
बृह॒स्पति॒नाव॑सृष्टां॒ विश्वे॑ दे॒वा अ॑धारयन्। यशो॒ गोषु॒ प्रवि॑ष्टं॒यत्तेने॒मां सं सृ॑जामसि ॥
स्वर सहित पद पाठबृह॒स्पति॑ना । अव॑ऽसृष्टाम् । विश्वे॑ । दे॒वा: । अ॒धा॒र॒य॒न् । यश॑: । गोषु॑ । प्रऽवि॑ष्टम् । यत् । तेन॑ । इ॒माम् । सम् । सृ॒जा॒म॒सि॒ ॥२.५६॥
स्वर रहित मन्त्र
बृहस्पतिनावसृष्टां विश्वे देवा अधारयन्। यशो गोषु प्रविष्टंयत्तेनेमां सं सृजामसि ॥
स्वर रहित पद पाठबृहस्पतिना । अवऽसृष्टाम् । विश्वे । देवा: । अधारयन् । यश: । गोषु । प्रऽविष्टम् । यत् । तेन । इमाम् । सम् । सृजामसि ॥२.५६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 56
भाषार्थ -
(बृहस्पतिना......अधारयन्) पूर्ववत्। (गोषु) गौओं में (यत्) जो (यशः) यश (प्रविष्टम्) प्रविष्ट है (तेन....) उस यश के साथ इस कन्या का हम संसर्ग करते हैं। तथा (बृहस्पतिना........अधारयन्) पूर्ववत्। (गोषु) स्तोताओं में (यत्) जो (यशः) यश (प्रविष्टम्) प्रविष्ट है, (तेन...) उस यश के साथ इस कन्या का हम संसर्ग करते हैं, (पूर्ववत्)।
टिप्पणी -
[मन्त्र ५५ में उत्तम बछड़ा-बछड़ी पैदा करने के कारण गो-नसल का यश होता है, इसी प्रकार उत्तम सन्तानों के कारण माता पिता का यश होता है। मन्त्र ५५ में भग अर्थात् योनि पद द्वारा सन्तानों का निर्देश किया है और मन्त्र ५६ में उन द्वारा हुए यश का वर्णन है।] तथा [मन्त्र ५५ में स्तोताओं के ५ भगों का वर्णन किया है अर्थात् ऐश्वर्य, धर्म, श्री, ज्ञान और वैराग्य। भग का छटा अर्थ है, यश। मन्त्र ५५ में जो ऐश्वर्य आदि का वर्णन हुआ है वे कारणरूप भग हैं, और मन्त्र ५६ में कार्यरूप यश का वर्णन है। इस प्रकार ५५ और ५६ मन्त्रों में विषय भिन्न-भिन्न हैं। इसी प्रकार ऐश्वर्य आदि का यथोचित उपार्जन कर विवाहित कन्या भी यशोभागिनी बने। गौः का अर्थ स्तोता भी होता हैं यह मन्त्र ५५ में दर्शा दिया है यह वधू की यशोदीक्षा है।]