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अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 55
सूक्त - आत्मा
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
बृह॒स्पति॒नाव॑सृष्टां॒ विश्वे॑ दे॒वा अ॑धारयन्। भगो॒ गोषु॒ प्रवि॑ष्टो॒यस्तेने॒मां सं सृ॑जामसि ॥
स्वर सहित पद पाठबृह॒स्पति॑ना । अव॑ऽसृष्टाम् । विश्वे॑ । दे॒वा: । अ॒धा॒र॒य॒न् । भग॑: । गोषु॑ । प्रऽवि॑ष्ट: । य: । तेन॑ । इ॒माम् । सम् । सृ॒जा॒म॒सि॒ ॥२.५५॥
स्वर रहित मन्त्र
बृहस्पतिनावसृष्टां विश्वे देवा अधारयन्। भगो गोषु प्रविष्टोयस्तेनेमां सं सृजामसि ॥
स्वर रहित पद पाठबृहस्पतिना । अवऽसृष्टाम् । विश्वे । देवा: । अधारयन् । भग: । गोषु । प्रऽविष्ट: । य: । तेन । इमाम् । सम् । सृजामसि ॥२.५५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 55
भाषार्थ -
(बृहस्पतिना....अधारयन्)–(पूर्ववत्)। (गोषु) गौओं में (यः) जो (भगः) सन्तानोत्पादक योनि (प्रविष्टः) प्रविष्ट है (तेन...) उस योनि के साथ इस कन्या का हम संसर्ग करते हैं (पूर्ववत्)। तथा (बृहस्पतिना....अधारयन)..... पूर्ववत्। (गोषु) स्तोताओं अर्थात् परमेश्वर का स्तवन करने वालों में (यः) जो (भगः) आध्यात्मिक ऐश्वर्य, धर्म, श्री ज्ञान और वैराग्य (प्रविष्टः) प्रविष्ट है, (तेन.....) उस भग के साथ इस कन्या का हम संसर्ग करते है (पूर्ववत्)।
टिप्पणी -
[भगः=योनी। Pudendum mulichre (आप्टे), अर्थात् महिला की इन्द्रिय। गौ निज योनी से बछड़ा-बछड़ी को जन्म देती है, जिस से, गोवंश की वृद्धि होती है। वधू को भी निज भग शक्ति से उत्तमोत्तम सन्तानों को जन्म देना चाहिये। यह वधू की भग दीक्षा है] तथा [गौ स्तोतृनाम (निघं० ३।१६)। इन ऐश्वर्य आदि के कारण वर को भी भग कहा है। यथा “भगस्ते हस्तमग्रहीत्” (अथर्व० १४।१।५१)। “ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षष्णां भग इतीरणा”। इस प्रकार भग के ६ अर्थ हैं जिन के साथ कन्या के संसर्ग का वर्णन हुआ है]