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अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 48
सूक्त - आत्मा
देवता - सतः पङ्क्ति
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
अपा॒स्मत्तम॑उच्छतु॒ नीलं॑ पि॒शङ्ग॑मु॒त लोहि॑तं॒ यत्।नि॑र्दह॒नी या पृ॑षात॒क्यस्मिन्तांस्था॒णावध्या स॑जामि ॥
स्वर सहित पद पाठअप॑ । अ॒स्मत् । तम॑: । उ॒च्छ॒तु॒ । नील॑म् । पि॒शङ्ग॑म् । उ॒त । लोहि॑तम् । यत् । नि॒:ऽद॒ह॒नी । या । पृ॒षा॒त॒की । अ॒स्मिन् । ताम् । स्था॒णौ । अधि॑ । आ । स॒जा॒मि॒ ॥२.४८॥
स्वर रहित मन्त्र
अपास्मत्तमउच्छतु नीलं पिशङ्गमुत लोहितं यत्।निर्दहनी या पृषातक्यस्मिन्तांस्थाणावध्या सजामि ॥
स्वर रहित पद पाठअप । अस्मत् । तम: । उच्छतु । नीलम् । पिशङ्गम् । उत । लोहितम् । यत् । नि:ऽदहनी । या । पृषातकी । अस्मिन् । ताम् । स्थाणौ । अधि । आ । सजामि ॥२.४८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 48
भाषार्थ -
(तमः) अज्ञानान्धकार, तथा (यद्) जो (नीलम) तमोगुणी कर्म, (लोहितम्) रजोगुणी कर्म, (उत) और (पिशङ्गम्) तमोगुण और रजोगुण के मिश्रण से उत्पन्न कर्म है, वह (अम्मत्) हम से (अप उच्छतु) पृथक हो जाय। (या) जो (निर्दहनी) निश्चित-दाह अर्थात् सन्ताप देने वाली (पृषातकी) बिन्दु सदृश धब्बों वाली या बाण के सदृश दुःख दायिका प्रकृति है (ताम्) उसे, (अस्मिन्) इस (स्थाणौ अधि) स्थिर, कूटस्थ, एकरस परमेश्वर में (आ सजामि) मैं आसक्त करता हूं, सौंपता हूं।
टिप्पणी -
[उच्छतु=उच्छी विवासे, निवास से पृथक् करना, विगत करना। पृषातकी१=पृषक्त=वाण, तीर, तद्वत् दुःखदायिका प्रकृति। पृषक्त का रूपान्तर=पृषातकी। अथवा पृषतः= बिन्दुसदृश धब्बों वाला हरिण। पृषतक=संज्ञायां कन्। पृषतकी=धब्बेदार मृगी, तद्वत् पृषातकी१ धब्बेदार प्रकृत। स्थाणु=स्थिर, कुटस्थ, एकरस परमेश्वर। यथा “स स्थाणुः स्थिर भक्तियोगसुलभो निःश्रेयसायास्तु वः” (विक्रमोवशीय, कालिदास)] [व्याख्या-तमस् अर्थात् अज्ञान को यजुर्वेद (४०।१२) में अन्धं-तमस् कहा है। केवल अपराविद्या के उपासक अन्धं-तमः में प्रविष्ट होते हैं, और केवल पराविद्या में रत “और अधिक” अन्धं-तमः में प्रविष्ट होते हैं। अतः अपराविद्या और पराविद्या इन दोनों के ज्ञाता अज्ञांनान्धकार से छुटकारा पा सकते हैं। मन्त्र में तमस् से पृथक् होने का अभिप्राय है अपराविद्या और पराविद्या की प्राप्ति के लिए सदा, गृहस्थ-जीवन में भी, यत्न करते रहना। अपराविद्या की प्राप्ति से अभ्युदय की सिद्धि होती है, और पराविद्या की प्राप्ति से निःश्रेयस सिद्ध होता है। तमस् अर्थात् अज्ञानान्धकार के रहते ३ प्रकार के कर्म होते हैं। (क) तामसिक-कर्म, जिन्हें कि मन्त्र में “नीलम्” कहा है। तथा (ख) राजसिक कर्म, जिन्हें कि “लोहितम्” कहा है। और तीसरे प्रकार के वे कर्म जिन में कि तमोगुण और रजोगुण मिश्रित रहते हैं, ऐसे कर्मों को मन्त्र में “पिशङ्गम्” कहा है। वैदिक साहित्य में प्रकृति के स्वरूप को दर्शाने के लिए रजोगुण को लोहित, सत्त्वगुण को शुक्ल, और तमोगुण को कृष्ण कहा है। यथा-“अजमेकां लोहित शुक्लकृष्णाम्” (श्वेता० उप० ४।५)। अजा का अभिप्राय है “न पैदा होने वाली नित्य प्रकृति”। पिशङ्ग का अर्थ है ‘REDDISH BROWN१” (आप्टे), लालमिश्रित भूरा रंग। और BROWN का अर्थ है “DARK OR Dusky inclinig to red”। इसलिए पिशङ्ग कर्म है “लोहितमिश्रित तमः” रूपी कर्म। अर्थात् रजोगुणमिश्रित तमोगुणी कर्म। इन तीनों प्रकार के कर्मों से अर्थात् नीलम्, लोहितम्, पिशङ्गम,-रूपी कर्मों से, पृथक होने की प्रार्थना मन्त्र में की गई है। ये तीन प्रकार के क्रम अज्ञानांधकार के परिणाम है। अतः शुक्ल कर्मों अर्थात् सात्त्विक कर्मों की उपादेयता अर्थापन्न है। गृहस्थ-जीवन में यथा सम्भव शुक्ल कर्मों को ही करना चाहिये। मन्त्र में प्रकृति को “पृषातकी” कहा है। पृषातकी के दो अर्थ दिए हैं, (१) बिन्दु सदृश धब्बों वाली मृगी के सदृश, प्रकृति। प्रकृति बिन्दुमयी है, इसका अभिप्राय यह है कि प्रकृति पट या चादर के सदृश, अपने रजस्, तमस् सत्त्व के अंशों में फैली हुई नहीं, अपितु रजस्, तमस् और सत्त्व में से प्रत्येक छोटे छोटे वर्णों के समूहरूप है, बिन्दुरूप हैं, परम-अणुरूप हैं। (२) पृषातकी को बाण या तीर रूप भी कहा है। बाण या तीर शरीर में प्रविष्ट हुए दुःखप्रद होते हैं, इसी प्रकार पृषातकी-प्रकृति भी विवेकी के लिए सदा दुःखमयी प्रकट होती है। यथा “दुःखमेव सर्व विवेकिनः” (योग २।१५)। इस भाव को दर्शाने के लिए मन्त्र में पृषातकी का विशेषण “निर्दहनी” दिया है, अर्थात् निश्चित रूप में दाह-सन्ताप देने वाली। शरीर के रहते प्रकृति तथा प्रकृतिजन्य पदार्थों से छुटकारा पाना असम्भव है। इसलिये प्रकृति को परमेश्वर के प्रति आसक्त करने, या सौंपने का अभिप्राय केवल यही है कि प्रकृति के पदार्थों में मोह-ममता को त्याग कर प्रकृति को निःश्रेयस में साधन मान कर, निष्काम भाव से उस का उपयोग करना। गृहस्थी के गृहस्थजीवन का यह सर्वोच्च लक्ष्य है। अर्थात् गृहस्थी को केवल अभ्युदय के लिए ही यत्न न करना चाहिए, अपितु अभ्युदय की प्राप्ति को निःश्रेयस की प्राप्ति में साधन मान कर उस का उपार्जन करना चाहिये। परम निष्काम-भाव।] [१.“पृषोदर” आदि की तरह साधु। “पृषातकी” का यह अर्थ भी हो सकता है कि “वस्तुओं के प्रति हमारे जीवनों में राग, द्वेष, मोह आदि सींच कर, हमें आतंकमय तथा कुछुजीवी करने वाली प्रकृति। पृष् (सेचने)+आतंकमयी (तकि कृच्छ जीवने)। “ह्विटनी” ने इस मन्त्र की टिप्पणी में पृषातकी का अर्थ किया है “She is perhaps the female demon” अर्थात् शायद यह भूतप्रेत या पिशाची है। मैंने जो अर्थ पृषातकी के लिए दिए हैं वे अनुमान रूप ही है। परन्तु मन्त्रार्थ में सङ्गत अवस्य हो सकते हैं।]