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अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 27
सूक्त - आत्मा
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
स्यो॒ना भ॑व॒श्वशु॑रेभ्यः स्यो॒ना पत्ये॑ गृ॒हेभ्यः॑। स्यो॒नास्यै॒ सर्व॑स्यै वि॒शे स्यो॒नापु॒ष्टायै॑षां भव ॥
स्वर सहित पद पाठस्यो॒ना । भ॒व॒ । श्वशु॑रेभ्य: । स्यो॒ना । पत्ये॑ । गृ॒हेभ्य॑: । स्यो॒ना । अ॒स्यै । सर्व॑स्यै । वि॒शे । स्यो॒ना । पु॒ष्टाय॑ । ए॒षा॒म् । भ॒व॒ ॥२.२७॥
स्वर रहित मन्त्र
स्योना भवश्वशुरेभ्यः स्योना पत्ये गृहेभ्यः। स्योनास्यै सर्वस्यै विशे स्योनापुष्टायैषां भव ॥
स्वर रहित पद पाठस्योना । भव । श्वशुरेभ्य: । स्योना । पत्ये । गृहेभ्य: । स्योना । अस्यै । सर्वस्यै । विशे । स्योना । पुष्टाय । एषाम् । भव ॥२.२७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 27
भाषार्थ -
हे वधु ! (श्वशुरेभ्यः) श्वशुरों के लिए (स्योना) सुखस्वरूपा (भव) तु हो, (पत्ये) पति के लिए, (गृहेभ्यः) और अन्य गृहवासियों के लिए (स्योना) तू सुखस्वरूपा हो। (अस्यै) इस (सर्वस्यै) सब (विशे) प्रजा के लिए (स्योना) सुखस्वरूपा हो (स्योना) सुखस्वरूपा तू (एषाम्) इन सब को (पुष्टाय) पुष्टि के लिए (भव) हो।
टिप्पणी -
[श्वशुरेभ्यः= पति का पिता, चाचा, ताऊ- ये सब वधू के श्वशुर है] [व्याख्या-पति के अन्य गृहवासियों के, तथा भृत्य, पशु आदि के सुखों तथा पुष्टि की चिन्ता पत्नी को सदा करनी चाहिये। मनुष्य समाज तथा समग्र प्रजा के लिए पत्नी को सुखमयी होना चाहिये। पत्नी के उदार तथा विशाल हृदय के बिना अतिथियज्ञ, पितृयज्ञ तथा भूतयज्ञ आदि गृहकर्मों का पालन सम्भव नहीं। प्राणि-मात्र के प्रति ऐसी उदार भावनाएँ प्रत्येक गृहस्थ की प्रत्येक गृहिणी के हृदय में होनी चाहिये।]