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अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 72
सूक्त - आत्मा
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
ज॑नि॒यन्ति॑ना॒वग्र॑वः पुत्रि॒यन्ति॑ सु॒दान॑वः। अरि॑ष्टासू सचेवहि बृह॒ते वाज॑सातये॥
स्वर सहित पद पाठज॒नि॒ऽयन्ति॑ । नौ॒ । अग्र॑व: । पु॒त्रि॒ऽयन्ति॑ । सु॒ऽदान॑व: । अरि॑ष्टासू॒ इत्यरि॑ष्टऽअसू । स॒चे॒व॒हि॒ । बृ॒ह॒ते । वाज॑ऽसातये ॥२.७२॥
स्वर रहित मन्त्र
जनियन्तिनावग्रवः पुत्रियन्ति सुदानवः। अरिष्टासू सचेवहि बृहते वाजसातये॥
स्वर रहित पद पाठजनिऽयन्ति । नौ । अग्रव: । पुत्रिऽयन्ति । सुऽदानव: । अरिष्टासू इत्यरिष्टऽअसू । सचेवहि । बृहते । वाजऽसातये ॥२.७२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 72
भाषार्थ -
(नौ) हम दोनों प्रकार के अर्थात् पुरुषजाति के और स्त्रीजाति के (अग्रवः) अविवाहित-पुरुष और अविवाहित स्त्रियां क्रम से अर्थात् पुरुष तो (जनियन्ति) स्त्री जनों को चाहते हैं, और पुरुषजनों को स्त्रियां चाहते हैं। और विवाहित हो जाने पर (सुदानवः) उत्तम-दानी हो कर, (पुत्रियन्ति) पुत्रों की इच्छा करते हैं। (अरिष्टासू) निज प्राण-शक्ति का विनाश न करते हुए हम दोनों (बृहते, वाजसातये) महा-बल की प्राप्ति तथा महा-अन्नदान के लिये (सचेवहि) एक-दूसरे के संगी बने रहें।
टिप्पणी -
[जनियन्ति=जन+क्यच् (इच्छा)। जन= स्त्रीजन, तथा पुरुषजन। जन शब्द का प्रयोग स्त्री और पुरुष दोनों के लिये होता है। यथा सखीजनः, अबलाजनः, दासजनः (आप्टे)। अग्रवः=अग्रु (unmarried, आप्टे)। पुत्रियन्ति=पुत्र+क्यच् (इच्छा)। पुत्र=पुत्र और पुत्री। यथा “अविशेषेण मिथुनाः पुत्रा दायादाः” (निरु० ३।१।३) में “मिथुनाः पुत्राः” द्वारा पुत्र और पुत्री दोनों को पुत्राः कहा है। सुदानवः=सद्गृहस्थ के लिए मनु ने पञ्चमहायज्ञों का विधान किया है। विना दान भावना के, पितृयज्ञ, देवयज्ञ, अतिथियज्ञ तथा बलिवैश्वदेवयज्ञ आदि नहीं हो सकते। अरिष्टासू=अ+रिष् (हिंसा)+क्त+असु (प्राण), “अस्तः शरीरे” (निरु० ३।२।८)। वाजसातये=वाजः अन्ननाम (निघं० २।७), बलनाम (निघं० २।९)+साति (षण संभक्तौ, षणु दाने)] [व्याख्या–पुरुषों और स्त्रियों में से प्रत्येक की स्वाभाविक इच्छा होती है कि वे अपने सङ्गी-साथी को चुनें। पति को पत्नी की, और पत्नी को पति की इच्छा का होना, प्राकृतिक नियम है, स्वभावसिद्ध विधान है। जैसे पुरुष और स्त्री को एक-दूसरे के साथ रहने की स्वाभाविक इच्छा होती है, वैसे सन्तान की इच्छा भी पुरुष-स्त्री को स्वभावतः होती है। इसी से सब प्राणियों की वंशपरम्पराएं अनादिकाल से चल रही हैं। उच्च कोटि के स्त्री-पुरुष तो इच्छापूर्वक यथेच्छ सन्तानें चाहते हैं, शेष व्यक्ति अपने अपने स्वभाव से प्रेरित हो कर सन्तानें पैदा करते हैं। वैदिक दृष्टि में पुत्रैषणा पितृ-ऋण चुकाने के लिए है। पितृ-ऋण सामाजिक ऋण है। समाज को उत्तम सन्तानें समर्पित कर पितृ-ऋण चुकाया जा सकता है। वैदिक गृहस्थी का धन-ऐश्वर्य भी समाजोपकार के लिये है, केवल निज-भोग के लिये नहीं। पंचमहायज्ञों का दैनिक अनुष्ठान वैदिक गृहस्थी का परम कर्तव्य है। चार आश्रमों में से तीन आश्रम वैदिक गृहस्थी पर ही आश्रित हैं। इसलिये मन्त्र में सद्गृहस्थों के लिये “सुदानवः” कहा है। इसीलिये वैदिक पति-पत्नी मन्त्र में कहते हैं कि हम दोनों अन्नदान के लिये परस्पर-संगी बने रहें (बृहते वाजसातये सचेवहि)। मन्त्र में “अरिष्टासू” पद पति-पत्नी का विशेषण है। इस विशेषण द्वारा वे संकल्प करते हैं कि गृहस्थ-धर्म का पालन करते हुए भी हम दोनों की प्राणशक्ति का विनाश न हो। गर्भपात की विधियां, या गर्भविरोध की विधियां प्राणविनाश की विधियां हैं। वैदिक दृष्टि में संयम और ब्रह्मचर्य ही ऐसी विधि है जो कि गर्भविरोध की सर्वोत्तम विधि है, जिसके द्वारा कि गृहस्थी अरिष्टासू बनते हैं, और प्राणरक्षा कर दीर्घजीवी तथा स्वस्थ रहते हैं। इसलिये भी मन्त्र में “बृहते वाजसातये” पद पटित हैं, इन का अर्थ है “महाबलप्राप्ति” के लिये हम दोनों परस्पर-संगी बने रहें। वाजः=अन्न तथा बल (निघण्टु)।