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अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 42
सूक्त - आत्मा
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
यं मे॑ द॒त्तोब्र॑ह्मभा॒गं व॑धू॒योर्वाधू॑यं॒ वासो॑ व॒ध्वश्च॒ वस्त्र॑म्। यु॒वं ब्र॒ह्मणे॑ऽनु॒मन्य॑मानौ॒ बृह॑स्पते सा॒कमिन्द्र॑श्च द॒त्तम् ॥
स्वर सहित पद पाठयम् । मे॒ । द॒त्त: । ब्र॒ह्म॒ऽभा॒गम् । व॒धू॒ऽयो: । वाधू॑ऽयम् । वास॑: । व॒ध्व᳡: । च॒। वस्त्र॑म् । यु॒वम् । ब्र॒ह्मणे॑ । अ॒नु॒ऽमन्य॑मानौ । बृह॑स्पते । सा॒कम् । इन्द्र॑: । च॒ । द॒त्तम् ॥२.४२॥
स्वर रहित मन्त्र
यं मे दत्तोब्रह्मभागं वधूयोर्वाधूयं वासो वध्वश्च वस्त्रम्। युवं ब्रह्मणेऽनुमन्यमानौ बृहस्पते साकमिन्द्रश्च दत्तम् ॥
स्वर रहित पद पाठयम् । मे । दत्त: । ब्रह्मऽभागम् । वधूऽयो: । वाधूऽयम् । वास: । वध्व: । च। वस्त्रम् । युवम् । ब्रह्मणे । अनुऽमन्यमानौ । बृहस्पते । साकम् । इन्द्र: । च । दत्तम् ॥२.४२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 42
भाषार्थ -
(वधूयोः) वधू की इच्छा वाले के (यम्) जिस, (ब्रह्मभागम्) ब्रह्मा के प्रति देय भाग को, अर्थात् (वाधूयम्) वधूयु-सम्बन्धी (वासः) वस्त्र या सहवास (च) और (वध्वः) वधू के (वस्त्रम्) वस्त्र को (दत्तः) [देव और मनु; मन्त्र १४।२।४१] दिया करते हैं, उसे (बृहस्पति) बृहती वेदवाणी के पति हे पुरोहित! तू (च) और (इन्द्र) सम्राट (साकम्) परस्पर मिलकर (अनुमन्यमानौ) अनुमति देते हुए (युवम्) तुम दोनों (मे, ब्रह्मणे) मुझ ब्रह्मापदवी वाले के लिए (दत्त) प्रदान करो।
टिप्पणी -
[बृहस्पति र्बे देवानां पुरोहितः (ऐ० ब्रा० ८।२६)। अर्थात् दोनों का पुरोहित बृहस्पति है। इन्द्रः = सम्राट् "इन्द्रश्च सम्राट्" (यजु० ८।३७)] [व्याख्या- वैदिक विवाह में पुरोहित है विवाह कराने वाला, तथा विवाह का साक्षी, और इन्द्र है विवाह-बन्धन का नियन्त्रण करने वाला सम्राट्। विवाह राजकीय-नियमों के अनुसार होना चाहिये, पुरोहित उन नियमों के अनुसार विवाह कराएं। वर और वधू में विवाह के लिए परस्पर इच्छा का होना आवश्यक है। यह 'वधूयु' शब्द द्वारा निर्दिष्ट किया है। (मन्त्र १४।१।९)। ब्रह्मा का ब्रह्मभाग है (१) उस की योग्यता तथा गुण कर्मों के सदृश योग्या ब्राह्मणी, अर्थात् वेदज्ञा-वधू (२) और ब्रह्मा तथा वधू के वस्त्र (३) तथा उन के सहवास का अधिकार। मन्त्र का अभिप्राय यह है कि गुणकर्मानुसार सदृशों के विवाह, राजकीय व्यवस्था द्वारा नियन्त्रित होने चाहिये।]