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  • अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 64
    सूक्त - आत्मा देवता - अनुष्टुप् छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त

    इ॒हेमावि॑न्द्र॒सं नु॑द चक्रवा॒केव॒ दम्प॑ती। प्र॒जयै॑नौ स्वस्त॒कौ विश्व॒मायु॒र्व्यश्नुताम्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒ह । इ॒मौ । च॒न्द्र॒ । सम् ।नु॒द॒ । च॒क्र॒वा॒काऽइ॑व । दंप॑ती॒ इति॒ दम्ऽप॑ती । प्र॒ऽजया॑ । ए॒नौ॒ । ॒सु॒ऽअ॒स्त॒कौ । विश्व॑म् । आयु॑: । वि । अ॒श्नु॒ता॒म् ॥२.६४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इहेमाविन्द्रसं नुद चक्रवाकेव दम्पती। प्रजयैनौ स्वस्तकौ विश्वमायुर्व्यश्नुताम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इह । इमौ । चन्द्र । सम् ।नुद । चक्रवाकाऽइव । दंपती इति दम्ऽपती । प्रऽजया । एनौ । सुऽअस्तकौ । विश्वम् । आयु: । वि । अश्नुताम् ॥२.६४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 64

    भाषार्थ -
    (इन्द्र) हे सम्राट्! या राजकीय वव्यस्था! (इमौ) इन दोनों अर्थात् पति-पत्नी को (इह) इस गृहस्थाश्रम में (सं नुद) इकट्ठे रहने, एक-दूसरे के साथ रहने की प्रेरणा कर, (दम्पती) क्योंकि पति-पत्नी (चक्रवाका=चक्रवाकौ, इव) चकवा-चकवी पक्षियों के जोड़े के सदृश है। (एनौ) ये दोनों (प्रजया) उत्तम सन्तानों वाले, (स्वस्तकौ) उत्तम घरों वाले, (विश्वम्) सम्पूर्ण (आयुः) आयु को (व्यश्नुताम्) प्राप्त हों, भोगें।

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