Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 25
सूक्त - आत्मा
देवता - परानुष्टुप् त्रिष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
वि ति॑ष्ठन्तांमा॒तुर॒स्या उ॒पस्था॒न्नाना॑रूपाः प॒शवो॒ जाय॑मानाः। सु॑मङ्ग॒ल्युप॑सीदे॒मम॒ग्निं संप॑त्नी॒ प्रति॑ भूषे॒ह दे॒वान् ॥
स्वर सहित पद पाठवि । ति॒ष्ठ॒न्ता॒म् । मा॒तु: । अ॒स्या: । उ॒पऽस्था॑त् । नाना॑ऽरूपा: । प॒शव॑: । जाय॑माना: । सु॒ऽम॒ङ्ग॒ली । उप॑ । सी॒द॒ । इ॒मम् । अ॒ग्निम् । सम्ऽप॑त्नी । प्रति॑ । भू॒ष॒ । इ॒ह ।दे॒वान् ॥२.२५॥
स्वर रहित मन्त्र
वि तिष्ठन्तांमातुरस्या उपस्थान्नानारूपाः पशवो जायमानाः। सुमङ्गल्युपसीदेममग्निं संपत्नी प्रति भूषेह देवान् ॥
स्वर रहित पद पाठवि । तिष्ठन्ताम् । मातु: । अस्या: । उपऽस्थात् । नानाऽरूपा: । पशव: । जायमाना: । सुऽमङ्गली । उप । सीद । इमम् । अग्निम् । सम्ऽपत्नी । प्रति । भूष । इह ।देवान् ॥२.२५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 25
भाषार्थ -
(अस्याः) इस (मातुः) माता के (उपस्थात्) गर्भ से (जायमानाः) जन्म धारण करते हुए (नानारूपाः) नानागुणों और आकृतियों वाले (पशवः) पशुतुल्य सन्तानें, (वि तिष्ठन्ताम्) विविध स्थितियों को प्राप्त करें। (सुमङ्गली) उत्तम-मङ्गल वाली तू हे वधु ! (इमम्) इस (अग्निम्) यज्ञाग्नि के (उप सीद) समीप तू बैठा कर, और (सं पत्नी) पति के साथ मिल कर (इह) इस घर में (देवान्) वायु आादि देवों को, देवयज्ञ अर्थात् अग्निहोत्र द्वारा (प्रतिभूष) सुगन्धि से अलंकृत किया कर।
टिप्पणी -
[व्याख्या-उत्पत्ति काल में सन्तानें पशुसादृश ही होती है। सद्गुणों के प्रकट होने पर और मननशील होने पर वे वस्तुतः मनुष्य होती हैं। तभी कहा है कि "जन्मना जायते शुद्रः"। अथर्व० ११।२।९ भी इस सम्बन्ध में द्रष्टव्य है। यथा "तवेमे पञ्च पशवो विभक्ता गावो अश्वाः पुरुषा अजावयः" इसमें पुरुषों को पशु कहा है। सद्गुणों से रहित, केवल आहार, निद्रा, भय और मैथुन वाले पुरुष पशु सदृश ही हैं। जन्मना पुरुष सन्तानों को पशु कहते हुए वेद ने जन्मजात वर्णव्यवस्था को अमाननीय ठहराया है। उत्पत्ति के समय बीजरूप अर्थात् अव्यक्तरूप में सन्तानें भिन्न-भिन्न गुणों से सम्पन्न रहती हैं, जिनकी कि अभिव्यक्ति, सत्संगों तथा शिक्षा द्वारा शनैः शनैः होती है, और सन्तानें अपने अपने पेशों तथा कामधन्धों द्वारा विविध स्थितियों को प्राप्त करती हैं। पत्नी निज व्यवहारों तथा कर्तव्यों द्वारा अपने आप को मङ्गलमयी बनाएं, किसी भी अमङ्गल भावना को मन में न आने दे और न कोई अमङ्गल काम करे। जिस गुण की सन्तान चाहे उसी सद्गुण का वह चिन्तन और मनन करती रहे। पति के साथ मिल कर पत्नी दैनिक अग्निहोत्र द्वारा घर के वायुमण्डल को सुगन्धित किया करे।