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अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 45
सूक्त - आत्मा
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
शुम्भ॑नी॒द्यावा॑पृथि॒वी अन्ति॑सुम्ने॒ महि॑व्रते। आपः॑ स॒प्त सु॑स्रुवुर्दे॒वीस्ता नो॑मुञ्च॒न्त्वंह॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठशुम्भ॑नी॒ इति॑ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । अन्ति॑सुम्ने॒ इत्यन्ति॑ऽसुम्ने । महि॑व्रते॒ इति॒ महि॑ऽव्रते । आप॑: । स॒प्त । सु॒स्रु॒व॒: । दे॒वी: । ता: । न॒: । मु॒ञ्च॒न्तु॒ अंह॑स: ॥२.४५॥
स्वर रहित मन्त्र
शुम्भनीद्यावापृथिवी अन्तिसुम्ने महिव्रते। आपः सप्त सुस्रुवुर्देवीस्ता नोमुञ्चन्त्वंहसः ॥
स्वर रहित पद पाठशुम्भनी इति । द्यावापृथिवी इति । अन्तिसुम्ने इत्यन्तिऽसुम्ने । महिव्रते इति महिऽव्रते । आप: । सप्त । सुस्रुव: । देवी: । ता: । न: । मुञ्चन्तु अंहस: ॥२.४५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 45
भाषार्थ -
(द्यावापृथिवी) द्युलोक और पृथिवीलोक (शुम्भनी) शोभायमान हैं (अन्तिसुम्ने) समीपता में सुखदाई तथा मन को सुप्रसन्न करते हैं, (महिव्रते) ये महाव्रती हैं, (सप्त) सात (आपः) जल या प्राण (देवीः) दिव्यगुणों से सम्पन्न हुए (सुस्रुवुः) प्रवाहित१ हुए हैं, (ताः) वे (नः) हमें (अंहस ) दुःखप्रद रोगों से (मुञ्चुन्तु) छुड़ा दें।
टिप्पणी -
[अन्ति=In the vicinity of (आप्टे)=अन्तिक। सुम्नम् सुखनाम (निघं० ३।६); सु+मनस्=मन को सुप्रसन्न करने वाले। सप्त आपः१= शारीरिक द्रव२ ७। यथा (१) Cerebro-Spinal fluid (मस्तिष्क-सुषुम्णा में प्रवाहित होने वाला द्रव। (२) मुखलाला, Saliva। (३)औदर्यरस, अर्थात् पेट का रस, पाचकरस (४) Pancreatic juice, अर्थात् Pancreas का रस जोकि पाचन में सहायक होता है। Pancreas=क्लोमग्रन्थि। (५) Liver bile=पित्त रस। (६) रक्त, खून। (७) Lymph रस, यह कुछ पीतवर्ण का और स्वाद में नमकीन होता है। सप्त आपः= सप्त प्राणाः= षडिन्द्रियाणि विद्या सप्तमी (निरु० १२।४।३७)। अर्थात् ५ ज्ञानेन्द्रियां, १ मन, १ विद्या अर्थात् बुद्धि आपः व्यापनानि। ये सात शरीर को व्याप्त किये हुए हैं, इस लिये आपः हैं] [व्याख्या – उषाकाल में द्युलोक और पृथिवीलोक की अद्भुत शोभा होती है। इस काल में भ्रमण से मन प्रसन्न होता तथा शारीरिक स्वास्थ्य बढ़ता है। इस लिये भ्रमण द्वारा, गृह्य वायुमण्डल से पृथक् हो कर, उषा के दिव्यप्रकाश से रञ्जित द्युलोक तथा विस्तृत पृथिवी की समीपता प्राप्त करनी चाहिये। भ्रमण में प्रकृति से शिक्षाग्रहण भी करनी चाहिये। भ्रमण में यह भी अनुभव करना चाहिये कि द्युलोक तथा पृथिवीलोक अपने व्रतों के पालन में किंतने दृढ़ हैं, जिससे कि दिन-रात, तथा उषाकाल आदि नियम पूर्वक होते रहते हैं। इन महाव्रतियों द्वारा हमें अपने व्रतों के पालन में शिक्षा लेनी चाहिये। उषा काल में भ्रमण द्वारा शारीरिक सात द्रव भी दिव्यगुणों से सम्पन्न हो जाते हैं। बाहर की शुद्ध प्राण वायु इन द्रवों को शुद्ध कर, नीरोग करती, जिस से रोग दूर हो जाने पर स्वास्थ्य तथा दीर्घायु प्राप्त होती है। आपः का अर्थ प्राण भी होता है। यथा “आपो वै प्राणाः” (शत० ब्रा० ३।८।२४), तथा “सप्त वै शीर्षन् प्राणाः” (ऐ० ब्रा० १।१७; ता० ब्रा० १।२।३।३)। इन प्राणों की शुद्धि भी उषा काल में भ्रमण द्वारा होती है।] [१. इन्द्रियों को भी स्रोत कहा है। यथा “स्रोतांसि सर्वाणि भयावहानि” (श्वेता० उप० २।८)। २. “आपः” द्वारा शारीरिक द्रव्यों या रसों का भी ग्रहण होता है, इस सम्बन्ध में निम्नलिखित मन्त्र प्रमाण है यथा “को अस्मिन्नापो व्यदधात्विषूवृतः पुरूवृतः सिन्धुसृत्याय जाताः। तीव्रा अरुणा लोहिनीस्ताम्रधूम्रा ऊर्ध्वा अवाचीः पुरुषे तिरश्चीः ॥ अथर्व० १०।२।११)।]