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  • अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 32
    सूक्त - आत्मा देवता - परानुष्टुप् त्रिष्टुप् छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त

    दे॒वा अ॑ग्रे॒न्यपद्यन्त॒ पत्नीः॒ सम॑स्पृशन्त त॒न्वस्त॒नूभिः॑। सू॒र्येव॑ नारिवि॒श्वरू॑पा महि॒त्वा प्र॒जाव॑ती॒ पत्या॒ सं भ॑वे॒ह ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वा: । अग्रे॑ । नि । अ॒प॒द्य॒न्त॒ । पत्नी॑: । सम् । अ॒स्पृ॒श॒न्त॒ । तन्व᳡: । त॒नूभि॑: । सू॒र्याऽइ॑व । ना॒रि॒ । वि॒श्वऽरू॑पा । म॒हि॒ऽत्वा । प्र॒जाऽव॑ती । पत्या॑ । सम् । भ॒व॒ । इ॒ह ॥२.३२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवा अग्रेन्यपद्यन्त पत्नीः समस्पृशन्त तन्वस्तनूभिः। सूर्येव नारिविश्वरूपा महित्वा प्रजावती पत्या सं भवेह ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    देवा: । अग्रे । नि । अपद्यन्त । पत्नी: । सम् । अस्पृशन्त । तन्व: । तनूभि: । सूर्याऽइव । नारि । विश्वऽरूपा । महिऽत्वा । प्रजाऽवती । पत्या । सम् । भव । इह ॥२.३२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 32

    भाषार्थ -
    (देवाः) देव लोग (अग्रे) पूर्व-काल से (पत्नीः) पत्नियों को (नि, अपद्यन्त) प्राप्त करते रहे हैं, (तन्वः) और शरीरों का (तनूभिः) शरीरों के साथ (सम्) विधिपूर्वक (अस्पृशन्त) स्पर्श करते रहे हैं। (नारि) हे नारि ! (महित्वा) अपनी महिमा के कारण (सूर्या इव) आदर्श सूर्या ब्रह्मचारिणी के सदृश (विश्वरूपा) समस्त गुणों से सुभूषित तू (प्रजावती) उत्तम-सन्तानों से सम्पन्न होने वाली (इह) इस गृह में (पत्या) पति के साथ (संभव) मिल, या सम्यक्-भूति को प्राप्त कर।

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