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अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 4
सूक्त - आत्मा
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
सोमो॑ददद्गन्ध॒र्वाय॑ गन्ध॒र्वो द॑दद॒ग्नये॑। र॒यिं च॑पु॒त्रांश्चा॑दाद॒ग्निर्मह्य॒मथो॑ इ॒माम् ॥
स्वर सहित पद पाठसोम॑: । द॒द॒त् । ग॒न्ध॒र्वाय॑ । ग॒न्ध॒र्व: । द॒द॒त् । अ॒ग्नये॑ । र॒यिम् । च॒ । पु॒त्रान् । च॒ । अ॒दा॒त् । अ॒ग्नि: । मह्य॑म् । अथो॒ इति॑ । इ॒माम् ॥२.४॥
स्वर रहित मन्त्र
सोमोददद्गन्धर्वाय गन्धर्वो दददग्नये। रयिं चपुत्रांश्चादादग्निर्मह्यमथो इमाम् ॥
स्वर रहित पद पाठसोम: । ददत् । गन्धर्वाय । गन्धर्व: । ददत् । अग्नये । रयिम् । च । पुत्रान् । च । अदात् । अग्नि: । मह्यम् । अथो इति । इमाम् ॥२.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 4
भाषार्थ -
(सोमः) सोम, जाया को (गन्धर्वाय) गन्धर्व के प्रति (ददत्) देता है, (गन्धर्वः) गन्धर्व (अग्नये) अग्नि के प्रति (ददत्) देता है। (अग्निः) अग्नि ने (मह्यम्) मेरे प्रति अर्थात् मनुष्यज के प्रति (रयिम्) सम्पत्ति को, (च) और (पुत्रान् च) पुत्र को, (अथो) तथा (इमाम्) इस जाया को (अदात्) दिया है।
टिप्पणी -
[व्याख्या– मन्त्र में "मनुष्यज" पति कहता है कि "यह जाया पहिले सोम की थी, सोम ने इसे गन्धर्व को दिया, गन्धर्व ने इसे अग्नि को दिया, अग्नि ने सम्पत्ति, पुत्रों और इस जाया को मुझे दिया। प्रतीत होता है मन्त्र १ से ४ में, कन्या की चार अवस्थाओं का वर्णन, उस के पतियों अर्थात् रक्षकों के रूप में हुआ है। कन्या जब छोटी है तब वह सौम्यगुण प्रधान होती है। इसीलिये छोटे बच्चों को सौम्य, सौम्या तथा सौम्यी शब्दों द्वारा सम्बोधित किया जाता है। इन शब्दों में सोम का अर्थ है चन्द्रमा। चन्द्रमा शीतल, शान्तिप्रद होता है। इन्हीं गुणों की प्रधानता के कारण छोटे बच्चों को सौम्य आदि शब्दों द्वारा पुकारा जाता है। छोटा बच्चा जब गुरुकुल में प्रविष्ट होता है तो उसे "सोमाय राज्ञे" शब्द द्वारा स्मरण किया है (अथर्व० २।१३।२)। छोटी अवस्था में सौम्यगुण के प्राधान्य के कारण कन्या का पति अर्थात् रक्षक "सोम" कहा है। कन्या की आयु बढ़ी, तब सौम्यगुणों का प्राधान्य शनैः शनैः कम होने लगा। कन्या में यौवनावस्था के चिह्न दृष्टिगोचर होने लगे। सौम्यजीवन की पिछली अवस्था में मानसिक विकार शनैः शनैः जड़ पकड़ने लगे। प्रेम और अनुराग के हाव-भाव प्रकट होने लगे। गन्ध, मोद, प्रमोद, रूपसम्पत् शोभा की भावनाएं जागरित होने लगीं "गन्धो मे मोदो मे प्रमोदो मे। तन्मे युष्मासु (गन्धर्वेषु) (जैमिनीय ३।३।२५।४), "रूपमिति गन्धर्वाः" (उपासते) (श० ब्रा० १०।५।२।२०), "वरुणो आदित्यो राजा, तस्य गन्धर्वा विशः त इमे आसते इति युवानः शोभना उपसमवेता भवन्ति" (आश्वलायन श्रौतसूत्र, १०।७।३)। इसी प्रकार इस अवस्था में गान्धर्वविद्या अर्थात् संगीत की ओर रुचि बढ़ने लगी "गाथयैति परिष्कृता" (अथर्व० १४।१।७) यह अवस्था गन्धर्वावस्था है। इस अवस्था में कन्या का पति अर्थात् रक्षक गन्धर्व है। कालान्तर में "अग्नि" पति होता है, रक्षक होता है। रजस्वला में "रजस्" की अभिव्यक्ति अग्नि की अभिव्यक्ति है। आयुर्वेद में रजस् को आग्नेय कहा है। रजस् रक्षक है इस में निम्नलिखित प्रमाण है। "सोमः शौचं ददत्तासां गन्धर्वः शिक्षितां गिरम् अग्निश्च सर्वभक्षत्वं तस्मात् निष्कल्मषाः स्त्रियः"(वौधायन धर्मसूत्र, प्रश्न २, अध्याय २ सूत्र ५८), अर्थात् सोम ने स्त्रियों को शुचिपन दिया, गन्धर्व ने शिक्षिता वाणी दी, अग्नि ने सब को खा जाने का गुण दिया, इसलिये स्त्रियां निष्कल्मष अर्थात् अशुद्धि से रहित हैं। अभिप्राय यह कि कन्या की सौम्यावस्था में सुकुमारावस्था में, उस में स्वाभाविकरूप से भावों तथा व्यवहारों की शुचिता होती है, उसमें छल-कपट नहीं होता। गन्धर्व का सम्बन्ध गानविद्या से है। गानविद्या द्वारा वाणी शिक्षित होती है, जिस से गाने के आरोह-अवरोह आदि में व्यक्ति निपुण हो जाता है। गान का अभिप्राय वैदिक दृष्टि में पवित्र सामगानों से है। अग्निशक्ति अर्थात् मासिक रजोदर्शन के प्रभाव से कन्या के शारीरिक दोष नष्ट हो जाते हैं। ठीक प्रकार से रजोदर्शन न होने से स्त्रियां रुग्ण हो जाती हैं। रजोदर्शन के ठीक होते रजस्-रूपी-अग्नि स्त्रियों के सब रोगों का भक्षण कर लेती है। इस रजोदर्शन के प्रारम्भ में ही कन्या का विवाह मनुष्यज-वर के साथ न कर देना चाहिये, रजोदर्शन की अवस्था का पूर्ण परिपाक कन्या में, २४ वर्षों की आयु में होता है। यह अवस्था सूर्या ब्रह्मचारिणी की है। सूर्या ब्रह्मचारिणी का विवाह आदित्य ब्रह्मचारी के साथ होता है। विवाह के समय गोदान तथा कन्या की विदाई के समय पिता से मिली वस्त्रादि की भेंट को मन्त्र में "रयि" कहा है, जोकि मनुष्यज पति को मिलती है। सूर्या ब्रह्मचारिणी के साथ मनुष्यज पति को "पुत्र" भी मिलते हैं। इस का अभिप्राय यह है कि पूर्ण ब्रह्मचर्य के कारण सूर्या प्रजोत्पादन की अनुद्-बुद्ध (potenial) अवस्था वर्तमान थी, जो कि विवाहानन्तर पुत्र पुत्रियों के रूप में प्रकट होती है। इस अवस्था से सम्पन्न सूर्या, आदित्य ब्रह्मचारी को मिलती है। और ऐसी सूर्या का दाता अग्नि अर्थात् परिपक्व रजस्-अवस्था ही होती है।] [विशेष वक्तव्य— अथर्व० १४।२।१-४ मन्त्रों में (१) "पतिभ्यः" में बहुवचन तथा "प्रजया सह"; मन्त्र (३) "पुनःपत्नीम्" अदात्; मन्त्र (३) में, सोम, गन्धर्व, अग्नि और मनुष्यज पतियों; तथा मन्त्र (४) में "रयिं च पुत्रांश्च अथो इमाम्"; इन शब्दों की दृष्टि से इन मन्त्रों के अर्थ नियोगपरक भी होते हैं। इस प्रकार ये चार मन्त्र द्व्यर्थक हैं, विवाहपरक भी और नियोगपरक भी। मन्त्र ३ का नियोग विषयक अर्थ महर्षिदयानन्दकृत निम्नलिखित है— "अब पतियों की संज्ञा कहते हैं- (सोमः प्रथमो विविदे) उन में से जो विवाहित पति होता है, उस की सोम संज्ञा है। क्योंकि वह सुकुमार होने से मृदु, आदि गुणयुक्त होता है। (गन्धर्वो विविद उत्तरः) दूसरा पति जो नियोग से होता है, सो गन्धर्वसंज्ञक अर्थात् भोग में अभिज्ञ होता है। (तृतीयो अग्निष्टे पतिः) तीसरा पति जो नियोग से होता है, वह अग्निसंज्ञक अर्थात् तेजस्वी अधिक उमरवाला होता है। (तुरीयस्ते मनुष्यजाः) और चौथे से लेके दशम पर्यन्त जो नियुक्त पति होते हैं, वे सब मनुष्यसंज्ञक होते हैं, क्योंकि वे मध्यम होते हैं। (सत्यार्थप्रकाश, तथा ऋग्वेदादिभाष्य भाष्य भूमिका)।]