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  • अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 17
    सूक्त - आत्मा देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त

    अघो॑रचक्षु॒रप॑तिघ्नी स्यो॒ना श॒ग्मा सु॒शेवा॑ सु॒यमा॑ गृ॒हेभ्यः॑।वी॑र॒सूर्दे॒वृका॑मा॒ सं त्वयै॑धिषीमहि सुमन॒स्यमा॑ना ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अघो॑रऽचक्षु: । अप॑तिऽघ्नी । स्यो॒ना । श॒ग्मा । सु॒ऽशेवा॑। सु॒ऽयमा॑ । गृ॒हेभ्य॑: । वी॒र॒ऽसू: । दे॒वृऽका॑मा ।सम् । त्वया॑ । ए॒धि॒षी॒म॒हि॒ । सु॒ऽम॒न॒स्यमा॑ना ॥२.१७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अघोरचक्षुरपतिघ्नी स्योना शग्मा सुशेवा सुयमा गृहेभ्यः।वीरसूर्देवृकामा सं त्वयैधिषीमहि सुमनस्यमाना ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अघोरऽचक्षु: । अपतिऽघ्नी । स्योना । शग्मा । सुऽशेवा। सुऽयमा । गृहेभ्य: । वीरऽसू: । देवृऽकामा ।सम् । त्वया । एधिषीमहि । सुऽमनस्यमाना ॥२.१७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 17

    भाषार्थ -
    (अघोरचक्षुः) क्रूरतारहित आंखों वाली, (अपतिघ्नी) पति को कष्ट न पहुँचाने वाली, (गृहेभ्यः) गृहवासियों के लिये (स्योना) सुखदायिनी, (शग्मा) शान्ति देनेवाली, (सुशेवा) उत्तम सेवा करनेवाली, (सुयमा) यम-नियमों का उत्तमविधि से पालन करनेवाली, (वीरसूः) वीर सन्तानें पैदा करनेवाली (देवृकामा) देवरों की शुभ कामना करनेवाली,और (सुमनस्यमाना) सुप्रसन्न मन वाली तू हो। (त्वया) इन गुणों से युक्त तेरे संग द्वारा (सम्,एधिषीमहि) हम सब वृद्धि प्राप्त करें, बढ़ें।

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