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अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 41
सूक्त - आत्मा
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
दे॒वैर्द॒त्तंमनु॑ना सा॒कमे॒तद्वाधू॑यं॒ वासो॑ व॒ध्वश्च॒ वस्त्र॑म्। यो ब्र॒ह्मणे॑चिकि॒तुषे॒ ददा॑ति॒ स इद्रक्षां॑सि॒ तल्पा॑नि हन्ति ॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वै: । द॒त्तम् । मनु॑ना । सा॒कम् । ए॒तत् । वाधू॑ऽयम्। वास॑: । व॒ध्व᳡: । च॒ । वस्त्र॑म् । य: । ब्र॒ह्मणे॑ । चि॒कि॒तुषे॑ । ददा॑ति । स: । इत् । रक्षां॑सि । तल्पा॑नि । ह॒न्ति॒ ॥२.४१॥
स्वर रहित मन्त्र
देवैर्दत्तंमनुना साकमेतद्वाधूयं वासो वध्वश्च वस्त्रम्। यो ब्रह्मणेचिकितुषे ददाति स इद्रक्षांसि तल्पानि हन्ति ॥
स्वर रहित पद पाठदेवै: । दत्तम् । मनुना । साकम् । एतत् । वाधूऽयम्। वास: । वध्व: । च । वस्त्रम् । य: । ब्रह्मणे । चिकितुषे । ददाति । स: । इत् । रक्षांसि । तल्पानि । हन्ति ॥२.४१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 41
भाषार्थ -
(देवैः) कन्यापक्ष के व्यवहार कुशल पुरुषों ने (मनुना) कन्या के मनस्वी अर्थात् विचारशील पिता के (साकम्) साथ मिल कर, (एतत्) यह (वाधूयम्, वासः) वधू की इच्छा वाले वर का वस्त्र या वधू के सहवास का अधिकार, (च) और (वध्वः वस्त्रम्) वधू का वस्त्र (दत्तम्) दिया है। (यः) जो कन्या का पिता (चिकितुषे) सम्यक्-ज्ञानी (ब्रह्मणे) वेदवेत्ता वर के लिए (ददाति) ये वैवाहिक वस्त्र देता है, (सः इद्) वह ब्रह्मा ही (तल्पानि = तल्प्यानि) चारपाई के (रक्षांसि) राक्षसों का (हन्ति) हनन करता है।
टिप्पणी -
[देवैः = दिवु क्रीडा विजिगीषा व्यवहार..] [व्याख्या-विवाह कन्यापक्ष के देवों तथा देवियों के समक्ष तथा उन की अनुमति से होना चाहिये। कन्या का पिता मनु अर्थात् मननशील होना चाहिये, ताकि वह सब बातों का विचार कर अपनी योग्य कन्या का विवाह योग्य वर के साथ करे। कन्या का पिता वर-तथा-वधू को विवाह में वस्त्र आदि प्रदान करे। आदर्श विवाह ब्रह्मा-पदवी के ज्ञानी वर, तथा सुयोग्य विदुषी का होता है। ब्रह्मा पदवी उसे मिलती है जोकि चारों वेदों का विद्वान् हो। ऐसे विद्वान् तथा विदुषी का जब परस्पर विवाह होता है तब उन के गृहस्थ-जीवन में राक्षसों का प्रवेश नहीं होने पाता। अनुचित कामुकता से उत्पन्न दुष्कर्म ही राक्षस हैं। प्रकरण के अनुसार इन्हें ही चारपाई के राक्षस कहा है। ब्रह्मापदवी के वर तथा विदुषी वधू से संयम की आशा की जा सकती है। ऐसे व्यक्ति गृहस्थ-धर्म के पालन के लिए चारपाई पर दिव्य भावनाओं से ही प्रेरित होकर आरूढ़ होंगे, राक्षसी-भावों के वशीभूत हो कर नहीं। कन्या का पिता, जब योग्य और संयमी वर के साथ अपनी कन्या का विवाह करता है, तब वह ही मानों चारपाई के राक्षसों के हनन में सहायता दे रहा होता है। चिकितुषे = अथवा चारपाई के राक्षसों के चिकित्सक ब्रह्मा के लिये।]