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अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 8
सूक्त - आत्मा
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
एमंपन्था॑मरुक्षाम सु॒गं स्व॑स्ति॒वाह॑नम्। यस्मि॑न्वी॒रो न रिष्य॑त्य॒न्येषां॑वि॒न्दते॒ वसु॑ ॥
स्वर सहित पद पाठआ । इ॒मम् । पन्था॑म् । अ॒रु॒क्षा॒म॒ । सु॒ऽगम् । स्व॒स्ति॒ऽवाह॑नम् । यस्मि॑न् । वी॒र: । न । रिष्य॑ति । अ॒न्येषा॑म् । वि॒न्दते॑ । वसु॑ ॥२.८॥
स्वर रहित मन्त्र
एमंपन्थामरुक्षाम सुगं स्वस्तिवाहनम्। यस्मिन्वीरो न रिष्यत्यन्येषांविन्दते वसु ॥
स्वर रहित पद पाठआ । इमम् । पन्थाम् । अरुक्षाम । सुऽगम् । स्वस्तिऽवाहनम् । यस्मिन् । वीर: । न । रिष्यति । अन्येषाम् । विन्दते । वसु ॥२.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 8
भाषार्थ -
(इमम्) इस (पन्थाम्) गृहस्थ-तीर्थ [मन्त्र ६] के पथ पर (आ अरुक्षाम) हम आरूढ़ हुए हैं, (सुगम्) जो कि सुगम मार्ग है, (स्वस्तिवाहनम्) और कल्याण प्राप्त करता है। (यस्मिन्) जिस मार्ग पर चलता हुआ (वीरः) धर्मवीर पुरुष (रिष्यति, न) विनाश को प्राप्त नहीं होता, और (अन्येषाम्) अन्य धर्मवीरों की (वसु) धर्मरूपी सम्पत् को (विन्दते) प्राप्त करता है।
टिप्पणी -
[स्वस्ति = उत्तम स्थिति। "सुष्ठु अस्ति वर्त्तते इति स्वस्ति, कल्याणं वा" (उणा० ४।१८२)। वाहनम् = वह प्रापणे] [व्याख्या– मन्त्र ६ में गृहस्थ को तीर्थ तथा सुगम कहा है, परन्तु तब जब कि गृहस्थ-पथ पर सुमतिपूर्वक और धर्मपूर्वक चला जाय। धर्मपूर्वक चलने गृहस्थी दीर्घजीवी हो कर विनाश को प्राप्त नहीं होते, और वे अन्य सद्गृहस्थियों के धर्ममार्ग का अवलम्बन करते रहते हैं। इस प्रकार जीवन में उत्तमस्थिति प्राप्त कर, कल्याण को प्राप्त करते हैं।]