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अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 59
सूक्त - आत्मा
देवता - पथ्यापङ्क्ति
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
यदी॒मे के॒शिनो॒जना॑ गृ॒हे ते॑ स॒मन॑र्तिषू॒ रोदे॑न कृ॒ण्वन्तो॒घम्। अ॒ग्निष्ट्वा॒तस्मा॒देन॑सः सवि॒ता च॒ प्र मु॑ञ्चताम् ॥
स्वर सहित पद पाठयदि॑ । इ॒मे । के॒शिन॑: । जना॑: । गृ॒हे । ते॒ । स॒म्ऽअन॑र्तिषु: । रोदे॑न । कृ॒ण्व॒न्त: । अ॒घम् । अ॒ग्नि:। त्वा॒ । तस्मा॑त् । एन॑स: । स॒वि॒ता । च॒ । प्र । मु॒ञ्च॒ता॒म् ॥२.५९॥
स्वर रहित मन्त्र
यदीमे केशिनोजना गृहे ते समनर्तिषू रोदेन कृण्वन्तोघम्। अग्निष्ट्वातस्मादेनसः सविता च प्र मुञ्चताम् ॥
स्वर रहित पद पाठयदि । इमे । केशिन: । जना: । गृहे । ते । सम्ऽअनर्तिषु: । रोदेन । कृण्वन्त: । अघम् । अग्नि:। त्वा । तस्मात् । एनस: । सविता । च । प्र । मुञ्चताम् ॥२.५९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 59
भाषार्थ -
(यदि) यदि (इमे) ये (केशिनः जनाः) केशोंवाले जन अर्थात् स्त्रियां (रोदेन) रुदन द्वारा (अधम्) मृत्यु को (कृण्वन्तः) प्रकट करती हुई (ते) हे वधू! तेरे (गृहे) घर में (समनर्तिषुः) इकट्ठी हो कर रोई-पीटी हैं, तो (तस्मात्) उस (एनसः) मृत्यु के कारणीभूत पाप से, (अग्निः) अग्नि (च) और (सविता) सूर्य (त्वा) तुझे (प्र मुञ्चताम्) छुड़ावें।
टिप्पणी -
[अधम्=आ हन्। अद्यं हन्तेः निर्हसितोपसर्गः। आहन्तीति (निरु० ६।३।११)। समनर्तिषुः=नृती गात्रविक्षेपे। दुःख के कारण अङ्गों का इधर-उधर पटकना। एनसः=एनः एतेः (निरु० ११।३।२४)।] [व्याख्या–पूर्ण आयु भोग कर मृत्यु का होना तो अवश्यम्भावी है। परन्तु बालकों, बालिकाओं, तथा युवकों की मृत्युएं- किन्हीं पापों के नियमों के भंग के, दुःखदायी परिणाम हैं-यह वैदिक सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त को दर्शाने के लिए मन्त्र में “अघ” शब्द पठित है, जिस का अर्थ है “पाप जन्य मृत्यु”। “अघ” का मूल अर्थ है,-पाप, परन्तु इस का धात्वर्थ है-हनन, मृत्यु। एनस् का अर्थ है, पाप। एनस् के साथ हनन या मृत्यु की भावना नहीं। असामयिक मृत्युएं वर्तमान तथा पूर्वजन्मों के संचित पापों के भी परिणाम हो सकती हैं, तथा माता-पिता और समाज के पापों के परिणामरूप भी हो सकती हैं। अतः ऐसी मृत्युओं और कष्टों से बचने के लिये मनुष्यों को चाहिये कि वे पापकर्मों के करने से बचे रहें। मृत्युओं तथा कष्टों के प्राकृतिक कारण भी होते हैं। यथा वायु, जल तथा स्थल का शुद्ध न होना, तथा अन्य स्वास्थ्यकारी अवस्थाओं की अवहेलना करना। ऐसी हत्याओं और कष्टों के निवारणार्थ मन्त्र में दो उपाय दर्शाएं हैं। एक अग्नि और दूसरा सूर्य। गृहों में गार्हपत्य अग्नि की स्थापना, उस में दैनिक तथा अन्य ऋतु के अनुकूल यज्ञों का करना, तथा गृहों में सूर्य के प्रकाश का होना- दीर्घ जीवन के लिये आवश्यक है। मन्त्र में स्त्रियों को “केशिनः जनाः” कहा है। इस से प्रतीत होता है कि केशों का शिरों पर रखना स्त्रियों के लिए आवश्यक है। निकट-सम्बन्धी की मृत्यु की अवस्था में सम्बन्धियों का मृत्यु वाले गृह में आकर इकट्ठा होना, और स्वाभाविक शोक से प्रेरित होकर उन का रोना,-यह भी परस्पर अनुराग का स्वाभाविक परिणाम है, जिस का कि मन्त्र में वर्णन हुआ है।]