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अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 16
सूक्त - आत्मा
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
उद्व॑ ऊ॒र्मिःशम्या॑ ह॒न्त्वापो॒ योक्त्रा॑णि मुञ्चत। मादु॑ष्कृतौ॒व्येनसाव॒घ्न्यावशु॑न॒मार॑ताम् ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । व॒: । ऊ॒र्मि: । शम्या॑: । ह॒न्तु॒ । आप॑: । योक्त्रा॑णि । मु॒ञ्च॒त॒ । मा । अदु॑:ऽकृतौ । विऽए॑नसौ । अ॒घ्न्यौ । अशु॑नम् । आ । अ॒र॒ता॒म् ॥१.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
उद्व ऊर्मिःशम्या हन्त्वापो योक्त्राणि मुञ्चत। मादुष्कृतौव्येनसावघ्न्यावशुनमारताम् ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । व: । ऊर्मि: । शम्या: । हन्तु । आप: । योक्त्राणि । मुञ्चत । मा । अदु:ऽकृतौ । विऽएनसौ । अघ्न्यौ । अशुनम् । आ । अरताम् ॥१.१६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 16
भाषार्थ -
(आपः) जलवत् शीतल हे नारियों ! (वः) तुम में से प्रत्येक के [हृदय से] (शम्या) शान्ति प्राप्त कराने वाली (ऊर्मिः) आसक्ति की लहर (उद् हन्तु) उद्गत हो, उठे। इस प्रकार (योक्त्राणि) प्रेमबन्धनों को तुम (मुञ्चत) धारण करो। हे पति-पत्नी ! तुम दोनों (अदुष्कृतौ) दुष्कर्मों से रहित (व्येनसौ) पापों से रहित, (अघ्न्यौ) और पाप की मार से हनन के अयोग्य हो कर (अशुनम्) प्रमुख को (मा) न (आ अरताम्) प्राप्त होओ।
टिप्पणी -
[शम्या = शम् (शान्ति) + या (प्रापणे), शान्ति प्राप्त कराने वाली। उद् हन्तु= उद् + हन् (गतौ) = उद्गच्छतु= उठे। हन् हिंसा और गति। आपः = आपः वै योषा (श० ब्रा० १।१।१।१।८)। शान्तिर्वा आपः (ऐ० ब्रा० ७।५)। आपो हि शान्तिः (तां० ब्रा० ८।७।८)। योक्त्राणि, योक्त्रम्१ = The rope by which an animal is tied to the pole of carriage (आप्टे), अर्थात् रस्सी के बन्धन। मुञ्चत= धारण करो, यथा "प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः" में मुञ्च का अर्थ है धारण करना। मुच्= To put on (आप्टे), अर्थात् धारण करना। आ अरताम् = ऋ गति प्रापणयोः (भ्वादि)। व्याख्या-मन्त्र में "आपः और शम्या उर्मिः" द्वारा जल वाले नद या समुद्र की लहरों का तथा "उद्हन्तु" द्वारा उन लहरों के उठने का निर्देश मिलता है। वेद में हृदय को भी "समुद्र" कहा है, यथा-हृद्यात्समुद्रात् (यजुः १७।९३) तथा "सिन्धु" सिन्धुसृत्याय (अथर्व १०।१।११)। इसलिये मन्त्रार्थ में ऊर्मि का सम्बन्ध हृदय के साथ किया है। "वः" बहुवचन है और "ऊर्मिः" एकवचन है। इसलिये "प्रत्येक के हृदय से"-ऐसा अर्थ किया गया है। आपः अर्थात् जल शान्त और शान्तिदायक होते हैं, इस लुप्तोपमा द्वारा, नारियों को भी जल के सदृश शान्ति सम्पन्न तथा शान्तिदायक होना चाहिये, यह भाव द्योतित किया है। मन्त्र के पूर्वार्ध द्वारा नारियों को, तथा उत्तरार्ध द्वारा वर-वधू या पति-पत्नी को उपदेश दिया है। "योक्त्राणि" पद द्वारा प्रेम-बन्धनों का निर्देश हुआ है। पत्नी के हृदय से यदि पति आदि के प्रति प्रेममयी लहरें उठती रहें तो ये प्रेममयी लहरें पति आदि के लिये बन्धन रूप हो जाती हैं। यथा “पतिर्बन्धेषु बध्यते" (अथर्व १४।१।२६) में भी बन्धनों का वर्णन हुआ है। प्रेम, सहानुभूति, सेवा आदि प्रेम-बन्धन हैं। पति-पत्नी को विशेष उपदेश दिया गया है, अर्थात दुष्कर्मों से रहित होना, पापों से रहित होना, अवध्य हो जाना, तथा अशुभ को प्राप्त न होना। अशुन= अ+शुनम् (सुखनाम, निघं० ३।६)। इन में परस्पर कार्य कारणभाव का सम्बन्ध है। दुष्कर्मों से पृथक् हो जाने पर पाप भावनाओं से मुक्त हो जाना, अनुभव और युक्ति से सिद्ध है। पाप भावनाओं से मुक्त हो जाने पर व्यक्ति अबध्य हो जाता है, उस का चारित्रिक विनाश नहीं होता, वह पूर्ण आयु भोग कर मृत्यु को प्राप्त करता है, और अन्त में जन्म-मरण के बन्धन से छूट जाता है। अशुन अर्थात् असुख के दो स्वरूप हैं। एक "सुख का न होना", और दूसरा "दुःख का होना"। "सुख का न होना" और "दुःख का होना"-ये दोनों अवस्थाएं उपादेय नहीं। मनुष्य दुःख से तो सदा रहित होना चाहता है, परन्तु सुखाभाव को भी वह नहीं चाहता। वह तो साक्षात् सुख का अभिलाषी है, केवल अशुन-अवस्था का नहीं।] [१. योक्त्रम् = yoke = रथ का जुआ। पति-पत्नी को गृहस्थ-रथ के जुए में बन्धने का वर्णन यथा "समाने योक्त्रे सह वो युनज्मि" (अर्थव० ३।३०।६) द्वारा भी किया गया है अर्थात् गृहस्थ के सब व्यक्ति परस्पर ऐसे बन्धे रहें जैसे दो बैल रथ के जुए में बन्धे रहते हैं।]