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अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 39
सूक्त - आत्मा
देवता - भुरिक् त्रिष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
आ रो॑हो॒रुमुप॑धत्स्व॒ हस्तं॒ परि॑ ष्वजस्व जा॒यांसु॑मन॒स्यमा॑नः। प्र॒जां कृ॑ण्वाथामि॒हमोद॑मानौ दी॒र्घं वा॒मायुः॑ सवि॒ता कृ॑णोतु ॥
स्वर सहित पद पाठआ । रो॒ह॒ । ऊ॒रुम् । उप॑ । ध॒त्स्व॒ । हस्त॑म् । परि॑ । स्व॒ज॒स्व॒ । जा॒याम् । सु॒ऽम॒न॒स्यमा॑न: । प्र॒ऽजाम् । कृ॒ण्वा॒था॒म् । इ॒ह । मोद॑मानौ । दी॒र्घम् । वा॒म् । आयु॑: । स॒वि॒ता । कृ॒णो॒तु॒ ॥२.३९॥
स्वर रहित मन्त्र
आ रोहोरुमुपधत्स्व हस्तं परि ष्वजस्व जायांसुमनस्यमानः। प्रजां कृण्वाथामिहमोदमानौ दीर्घं वामायुः सविता कृणोतु ॥
स्वर रहित पद पाठआ । रोह । ऊरुम् । उप । धत्स्व । हस्तम् । परि । स्वजस्व । जायाम् । सुऽमनस्यमान: । प्रऽजाम् । कृण्वाथाम् । इह । मोदमानौ । दीर्घम् । वाम् । आयु: । सविता । कृणोतु ॥२.३९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 39
भाषार्थ -
हे पति ! (उरुम्) पत्नी की जांघ पर (आरोह) आरोहण कर (हस्तम्) अपने हाथों का (उपधत्स्व) उपधानरूप में सहारा दे, (सुमनस्यमानः) सुप्रसन्नचित हो कर (जायाम्) पत्नी का (परिष्वजस्व) आलिङ्गन कर। (मोदमानौ) प्रमुदित अर्थात् प्रकर्षाविष्ट तुम दोनों (इह) यहां (प्रजाम् कृण्वाथाम्) प्रजननक्रिया करो, (सविता) सर्वोत्पादक परमेश्वर-पिता (वाम्) तुम दोनों की (आयुः) आयु को (दीर्घम्) दीर्घ (कृणोतु) करे। उपधान= सिरहाना।
टिप्पणी -
[व्याख्या- कामशास्त्रों में मैथुन की नानाविधियों और आसनों का वर्णन मिलता है। वेद ने केवल सुगम और उचित आसन का वर्णन किया है, और यही आसन उत्तम-सन्तानों के उत्पादन में उपयोगी है। शेष आसन पारस्परिक अनुचित-कामुकता के प्रदर्शक हैं। उत्तम-सन्तानों के उत्पादन में पति-पत्नी में पारस्परिक प्रसन्नता महत्वपूर्ण कारण है। मन्त्र में सुमनस्यमानः, मोदमानौ, तथा परिष्वजस्व शब्द, पारस्परिक प्रसन्नता के सूचक हैं। गृहस्थधर्म के पालन में अनियन्त्रण तथा लम्पटता से आयुः क्षीण हो जाती है। इसलिये आयु को दीर्घ करने के लिये सविता अर्थात् जगदुत्पादक परमेश्वर की जगदुत्पादन विधि का विचार रखते हुए गृहस्थधर्म का पालन करना चाहिये। सविता, प्रकृति-पत्नी से, जगदुत्पादन कर रहा है, जिस में कि कामुकता का लेश मात्र भी नहीं। इस कामुकता के परित्याग से, गृहस्थधर्म पालन करते हुए भी, आयु दीर्घ हो जाती है।]