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अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 58
सूक्त - आत्मा
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
बृह॒स्पति॒नाव॑सृष्टां॒ विश्वे॑ दे॒वा अ॑धारयन्। रसो॒ गोषु॒ प्रवि॑ष्टो॒यस्तेने॒मां सं सृ॑जामसि ॥
स्वर सहित पद पाठबृह॒स्पति॑ना । अव॑ऽसृष्टाम् । विश्वे॑ । दे॒वा: । अ॒धा॒र॒य॒न् । रस॑: । गोषु॑ । प्रऽवि॑ष्ट: । य: । तेन॑ । इ॒माम् । सम् । सृ॒जा॒म॒सि॒ । इ॒माम् । सम् । सृ॒जा॒म॒सि॒ ॥२.५८॥
स्वर रहित मन्त्र
बृहस्पतिनावसृष्टां विश्वे देवा अधारयन्। रसो गोषु प्रविष्टोयस्तेनेमां सं सृजामसि ॥
स्वर रहित पद पाठबृहस्पतिना । अवऽसृष्टाम् । विश्वे । देवा: । अधारयन् । रस: । गोषु । प्रऽविष्ट: । य: । तेन । इमाम् । सम् । सृजामसि । इमाम् । सम् । सृजामसि ॥२.५८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 58
भाषार्थ -
(बृहस्पतिना.....अधारयन्) पूर्ववत्। (गोषु) गौओं में (यः) जो, (रसः) दुग्ध में माधुर्य-रस (प्रविष्टः) प्रविष्ट है, (तेन...) उस माधुर्यरस के साथ इस कन्या वधू का हम संसर्ग करते हैं। तथा (बृहस्पतिना-अधारयन्) पूर्ववत्। (गोषु) पृथिवियों में (यः) जो ( रसः) नानारस (प्रविष्ट:) प्रविष्ट है, (तेन) उन नानाविध रसों के साथ इस कन्या का हम ससगं करते हैं।
टिप्पणी -
[मन्त्र द्वारा वधू को शिक्षा दी गई है कि गौओं का दूध जैसे मधुर होता है, वैसे तेरा स्वाभाविक दूध भी मधुर भावनाओं तथा मधुरस्वाद से सम्पन्न होना चाहिये। जैसे कहा है कि-“मधुरं गवां पयाः”। इस निमित्त शिशु की माता को सात्विक मधुर तथा स्वादिष्ट अन्न का सेवन करना चाहिये।] तथा [गोषु=गौः पृथिवीनाम (निघं० १।१)| पृथिवी तीन प्रकार की है, उपज की दृष्टि से। यथा “इमा यास्तिस्रः पृथिवीस्तासां ह भूमिरुत्तमा” (अथर्व ६।२१।१), अर्थात् उत्तम, मध्यम और अधम रूप से तीन प्रकार की पृथिवियां हैं, उन में जो भूमि अच्छी उपजाऊ है, वह उत्तम है। तीन पृथिवियां=अथवा पर्वतीय, समतल, तथा अनूप प्रदेशीय अर्थात् जलप्रधाना। इस द्वारा विवाहित कन्या को उपदेश दिया है कि पृथिवी जैसे नाना प्रकार के रसीले पदार्थों वाली है, वैसे तू भी रसवती अर्थात् रसोई में नाना प्रकार के रसीले पदार्थों का पाक किया करना, तथा औषधि और फलों के नाना विध रसों से घर को भरपूर रखना। यह रस दीक्षा पांचवीं दीक्षा है]।