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  • अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 58
    सूक्त - आत्मा देवता - अनुष्टुप् छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त

    बृह॒स्पति॒नाव॑सृष्टां॒ विश्वे॑ दे॒वा अ॑धारयन्। रसो॒ गोषु॒ प्रवि॑ष्टो॒यस्तेने॒मां सं सृ॑जामसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बृह॒स्पति॑ना । अव॑ऽसृष्टाम् । विश्वे॑ । दे॒वा: । अ॒धा॒र॒य॒न् । रस॑: । गोषु॑ । प्रऽवि॑ष्ट: । य: । तेन॑ । इ॒माम् । सम् । सृ॒जा॒म॒सि॒ । इ॒माम् । सम् । सृ॒जा॒म॒सि॒ ॥२.५८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बृहस्पतिनावसृष्टां विश्वे देवा अधारयन्। रसो गोषु प्रविष्टोयस्तेनेमां सं सृजामसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बृहस्पतिना । अवऽसृष्टाम् । विश्वे । देवा: । अधारयन् । रस: । गोषु । प्रऽविष्ट: । य: । तेन । इमाम् । सम् । सृजामसि । इमाम् । सम् । सृजामसि ॥२.५८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 58

    पदार्थ -
    (बृहस्पतिना) बृहस्पति [बड़ी वेदवाणी के रक्षक आचार्य] करके (अवसृष्टाम्) दी हुई [दीक्षा, नियम व्रतकी शिक्षा-म० ५२] को (विश्वे देवाः) सब विद्वानों ने (अधारयन्) धारण किया है। (यः) जो (रसः) रस [वीर्य वा वीर रस] (गोषु) विद्वानों में (प्रविष्टः) प्रविष्टहै, (तेन) उससे (इमाम्) इस [प्रजा, स्त्री सन्तान आदि] को (सं सृजामसि) हमसंयुक्त करते हैं ॥५८॥

    भावार्थ - जो मनुष्य पूर्वजविद्वानों के समान अपने लोगों को सुशिक्षित करके वीर बनाते हैं, वे सुप्रतिष्ठितहो कर सुख भोगते हैं ॥५८॥

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