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  • अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 71
    सूक्त - आत्मा देवता - बृहती छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त

    अमो॒ऽहम॑स्मि॒सा त्वं॒ सामा॒हम॒स्म्यृक्त्वं द्यौर॒हं पृ॑थि॒वी त्व॑म्। तावि॒ह सं भ॑वावप्र॒जामा ज॑नयावहै ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अम॑: । अ॒हम् । अ॒स्मि॒ । सा । त्वम् । साम॑ । अ॒हम् । अ॒स्मि॒ । ऋक् । त्वम् । द्यौ: । अ॒हम् । पृ॒थि॒वी । त्वम् । तौ । इ॒ह । सम् । भ॒वा॒व॒ । प्र॒ऽजाम् । आ । ज॒न॒या॒व॒है॒ ॥२.७१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अमोऽहमस्मिसा त्वं सामाहमस्म्यृक्त्वं द्यौरहं पृथिवी त्वम्। ताविह सं भवावप्रजामा जनयावहै ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अम: । अहम् । अस्मि । सा । त्वम् । साम । अहम् । अस्मि । ऋक् । त्वम् । द्यौ: । अहम् । पृथिवी । त्वम् । तौ । इह । सम् । भवाव । प्रऽजाम् । आ । जनयावहै ॥२.७१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 71

    पदार्थ -
    [हे वधू !] (अहम्) मैं [वर] (अमः) ज्ञानवान् (अस्मि) हूँ, (सा) सो (त्वम्) तू [ज्ञानवती है], (अहम्)मैं (साम) सामवेद [मोक्षज्ञान के समान सुखदायक] (अस्मि) हूँ, (त्वम्) तू (ऋक्)ऋग्वेद की ऋचा [पदार्थों के गुणों की बड़ाई बतानेवाली विद्या के तुल्य आनन्ददेनेवाली] है, (अहम्) मैं (द्यौः) सूर्य [वृष्टि आदि करनेवाले रवि के समानउपकारी] हूँ, और (त्वम्) तू (पृथिवी) पृथिवी [अन्न आदि उत्पन्न करनेवाली भूमि केसमान उत्तम सन्तान उत्पन्न करनेवाली] है। (तौ) वे हम दोनों (इह) यहाँ [गृहाश्रममें] (सं भवाव) पराक्रमी होवें, और (प्रजाम्) प्रजा [उत्तम सन्तान] को (आजनयावहै) उत्पन्न करें ॥७१॥

    भावार्थ - वधू-वर राज्यप्रबन्धसे सन्तुष्ट होकर और अनेक प्रकार की विद्या और सम्पत्ति की प्राप्ति और सुसन्तानकी उत्पत्ति से सुखी होवें ॥७१॥यह मन्त्र कुछ भेद से महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि विवाहप्रकरण में वधू-वर के परस्पर प्रतिज्ञा करने में व्याख्यात है॥

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