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  • अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 18
    सूक्त - आत्मा देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त

    अदे॑वृ॒घ्न्यप॑तिघ्नी॒हैधि॑ शि॒वा प॒शुभ्यः॑ सु॒यमा॑ सु॒वर्चाः॑। प्र॒जाव॑तीवीर॒सूर्दे॒वृका॑मा स्यो॒नेमम॒ग्निं गार्ह॑पत्यं सपर्य ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अदे॑वृऽघ्नी । अप॑तिऽघ्नी । इ॒ह । ए॒धि॒ । शि॒वा । प॒शुऽभ्य॑: । सु॒ऽयमा॑ । सु॒ऽवर्चा॑: । प्र॒जाऽव॑ती । वी॒र॒ऽसू: । दे॒वृऽका॑मा । स्यो॒ना । इ॒मम् । अ॒ग्निम् । गार्ह॑ऽपत्यम् । स॒प॒र्य॒ ॥२.१८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अदेवृघ्न्यपतिघ्नीहैधि शिवा पशुभ्यः सुयमा सुवर्चाः। प्रजावतीवीरसूर्देवृकामा स्योनेममग्निं गार्हपत्यं सपर्य ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अदेवृऽघ्नी । अपतिऽघ्नी । इह । एधि । शिवा । पशुऽभ्य: । सुऽयमा । सुऽवर्चा: । प्रजाऽवती । वीरऽसू: । देवृऽकामा । स्योना । इमम् । अग्निम् । गार्हऽपत्यम् । सपर्य ॥२.१८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 18

    पदार्थ -
    [हे वधू !] (इह) यहाँ [गृहाश्रम में] (अपतिघ्नी) पति को न सतानेवाली, (अदेवृघ्नी) देवरों को न कष्टदनेवाली, (शिवा) मङ्गल करनेवाली, (पशुभ्यः) के लिये (सुयमा) सुन्दर नियमोंवाली (सुवर्चाः) बड़े तेजवाली (एधि) हो। (प्रजावती) श्रेष्ठ प्रजाओं [सेवक आदि]रखनेवाली, (वीरसूः) वीरों की उत्पन्न करनेवाली, (देवृकामा) देवरों से प्रीतिकरनेवाली, (स्योना) सुखयुक्त तू (गार्हपत्यम्) गृहस्थसम्बन्धी (इमम्) इस (अग्निम्) अग्नि को (सपर्य) सेवन कर ॥१८॥

    भावार्थ - गृहिणी को चाहिये किअपने पति और सब कुटुम्बियों और पशुओं को प्रसन्न रखकर उत्तम सन्तान उत्पन्न करेऔर गृहकार्य की सिद्धि के लिये शिल्पकर्म, हवनकर्म और पाकक्रिया आदि में अग्निका यथावत् प्रयोग करती रहे ॥१८॥

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