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  • अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 6
    सूक्त - आत्मा देवता - जगती छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त

    सा म॑न्दसा॒नामन॑सा शि॒वेन॑ र॒यिं धे॑हि॒ सर्व॑वीरं वच॒स्यम्। सु॒गं ती॒र्थं सु॑प्रपा॒णंशु॑भस्पती स्था॒णुं प॑थि॒ष्ठामप॑ दुर्म॒तिं ह॑तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सा । म॒न्द॒सा॒ना । मन॑सा । शि॒वेन॑ । र॒यिम् । धे॒हि॒ । सर्व॑ऽवीरम् । व॒च॒स्य᳡म् । सु॒ऽगम् । ती॒र्थम् । सु॒ऽप्र॒पा॒नम् । शु॒भ॒: । प॒ती॒ इति॑ । स्था॒णुम् । पथि॑ऽस्थाम् । अप॑ । दु॒:ऽम॒तिम् । ह॒त॒म् ॥२.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सा मन्दसानामनसा शिवेन रयिं धेहि सर्ववीरं वचस्यम्। सुगं तीर्थं सुप्रपाणंशुभस्पती स्थाणुं पथिष्ठामप दुर्मतिं हतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सा । मन्दसाना । मनसा । शिवेन । रयिम् । धेहि । सर्वऽवीरम् । वचस्यम् । सुऽगम् । तीर्थम् । सुऽप्रपानम् । शुभ: । पती इति । स्थाणुम् । पथिऽस्थाम् । अप । दु:ऽमतिम् । हतम् ॥२.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    [हे वधू !] (सा) सो तू (मन्दसाना) आनन्द करती हुई, (शिवेन) कल्याणयुक्त (मनसा) मन के साथ (सर्ववीरम्)सब वीरोंवाले (वचस्यम्) स्तुतियोग्य (रयिम्) धन को (धेहि) धारण कर। (शुभः पती)हे शुभ क्रिया के रक्षक तुम दोनों ! (सुगम्) सुख से जाने योग्य, (सुप्रपाणम्)सुन्दर पानीवाले (तीर्थम्) तीर्थ [उतरने के घाट] को [धारण करो]और (पथिष्ठाम्)मार्ग में खड़े हुए (स्थाणुम्) ठूठ [झाड़ झंकड़ आदि समान] (दुर्मतिम्) दुर्मतिको (अप हतम्) नाश करो ॥६॥

    भावार्थ - जहाँ पर गुणवती स्त्रीप्रसन्न होकर धन का प्रबन्ध करके सन्तानों को शूर, वीर, यशस्वी बनाती है, वहाँपर दोनों पति-पत्नी विघ्नों को हटाकर गृहाश्रम को ऐसा सुखदायी करते हैं, जैसेविद्वान् शिल्पी मार्ग के कण्टक आदि मेंटकर नदी का सुगम तीर्थ अर्थात् घाट बनाताहै, जिस पर होकर सब सुख से उतरते और जल से स्नान-पान करके आनन्द पाते हैं ॥६॥यहमन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।४०।१३ ॥

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