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  • अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 50
    सूक्त - आत्मा देवता - उपरिष्टात् निचृत बृहती छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त

    या मे॑प्रि॒यत॑मा त॒नूः सा मे॑ बिभाय॒ वास॑सः। तस्याग्रे॒ त्वं व॑नस्पते नी॒विंकृ॑णुष्व॒ मा व॒यं रि॑षाम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    या । मे॒ । प्रि॒यऽत॑मा । त॒नू: । सा । मे॒ । बि॒भा॒य॒ । वास॑स: । तस्य॑ । अग्ने॑ । त्वम् । व॒न॒स्प॒ते॒ । नी॒विम् । कृ॒णु॒ष्व॒ । मा । व॒यम् । रि॒षा॒म॒ ॥२.५०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    या मेप्रियतमा तनूः सा मे बिभाय वाससः। तस्याग्रे त्वं वनस्पते नीविंकृणुष्व मा वयं रिषाम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    या । मे । प्रियऽतमा । तनू: । सा । मे । बिभाय । वासस: । तस्य । अग्ने । त्वम् । वनस्पते । नीविम् । कृणुष्व । मा । वयम् । रिषाम ॥२.५०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 50

    पदार्थ -
    [हे वीर !] (या) जो (मे) मेरा (प्रियतमा) अत्यन्त प्रिय (तनूः) शरीर है, (सा) वह (मे) मेरा शरीर (वाससः) हिंसा कर्म से (बिभाय) डरता है। (वनस्पते) हे सेवनीय व्यवहार के रक्षक ! (त्वम्) तू (अग्रे) पहिले से (तस्य) उस [हिंसा कर्म] का (नीविम्) बन्धन (कृणुष्व) कर, (वयम्) हम लोग (मा रिषाम) कभी न कष्ट पावें ॥५०॥

    भावार्थ - विद्वान् गृहस्थों काकर्तव्य है कि दूसरों को सताकर अपनों को दूषित न करें और उस का पहिले से विचारकरके राजदण्ड आदि के पश्चात्ताप से बचकर सुखी रहें ॥५०॥

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