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  • अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 37
    सूक्त - आत्मा देवता - भुरिक् त्रिष्टुप् छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त

    संपि॑तरा॒वृत्वि॑ये सृजेथां मा॒ता पि॒ता च॒ रेत॑सो भवाथः। मर्य॑ इव॒ योषा॒मधि॑रोहयैनां प्र॒जां कृ॑ण्वाथामि॒ह पु॑ष्यतं र॒यिम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम् । पि॒त॒रौ॒ ‍। ऋत्वि॑ये॒ इति॑ । सृ॒जे॒था॒म् । मा॒ता । पि॒ता । च॒ । रेत॑स: । भ॒वा॒थ॒: ।मर्य॑:ऽइव । योषा॑म् । अधि॑ । रो॒ह॒य॒ । ए॒ना॒म् प्र॒ऽजाम् । कृ॒ण्वा॒था॒म् । इ॒ह । पु॒ष्य॒त॒म् । र॒यिम् ॥२.३७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    संपितरावृत्विये सृजेथां माता पिता च रेतसो भवाथः। मर्य इव योषामधिरोहयैनां प्रजां कृण्वाथामिह पुष्यतं रयिम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम् । पितरौ ‍। ऋत्विये इति । सृजेथाम् । माता । पिता । च । रेतस: । भवाथ: ।मर्य:ऽइव । योषाम् । अधि । रोहय । एनाम् प्रऽजाम् । कृण्वाथाम् । इह । पुष्यतम् । रयिम् ॥२.३७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 37

    पदार्थ -
    (पितरौ) हे [होनेवाले]माता-पिता ! (ऋत्विये) ऋतुकाल [गर्भाधानयोग्य समय] को प्राप्त दो वस्तु [केसमान] (संसृजेथाम्) तुम दोनों मिलो, (च) और (रेतसः) वीर्य से [वीर्य और रज केमेल से] तुम दोनों (माता पिता) माता-पिता (भवाथः) होओ। (मर्यः इव) नर के समान [हे पति !] (एनाम्) इस (योषाम्) अपनी पत्नी के (अधि रोहय) ऊपर हो, और (प्रजाम्)सन्तान को (कृण्वाथाम्) तुम दोनों उत्पन्न करो, और (इह) यहाँ [गृहाश्रम में] (रयिम्) धन को (पुष्यतम्) बढ़ाओ ॥३७॥

    भावार्थ - जैसे वृक्ष आदि के बीजके मिले हुए दो टुकड़े वर्षा ऋतु में पृथिवी के संयोग से अङ्कुर उत्पन्न करतेहैं, वैसे ही युवा पति-पत्नी गर्भाधानविधि के अनुसार रतिक्रिया करके वीर्य औररज के संयोग से सन्तान उत्पन्न करें और धनी होकर सुखी होवें ॥३७॥मन्त्र ३७ और ३८महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि गृहाश्रमप्रकरण में व्याख्यात हैं ॥

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