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  • अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 20
    सूक्त - आत्मा देवता - पुरस्ताद् बृहती छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त

    य॒दागार्ह॑पत्य॒मस॑पर्यै॒त्पूर्व॑म॒ग्निं व॒धूरि॒यम्। अधा॒ सर॑स्वत्यै नारिपि॒तृभ्य॑श्च॒ नम॑स्कुरु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य॒दा । गार्ह॑ऽपत्यम् । अस॑पर्यैत् । पूर्व॑म् । अ॒ग्निम् । व॒धू: । इ॒यम् । अध॑ । सर॑स्वत्यै । ना॒रि॒ । पि॒तृऽभ्य॑: । च॒ । नम॑: । कु॒रु॒ ॥२.२०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदागार्हपत्यमसपर्यैत्पूर्वमग्निं वधूरियम्। अधा सरस्वत्यै नारिपितृभ्यश्च नमस्कुरु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यदा । गार्हऽपत्यम् । असपर्यैत् । पूर्वम् । अग्निम् । वधू: । इयम् । अध । सरस्वत्यै । नारि । पितृऽभ्य: । च । नम: । कुरु ॥२.२०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 20

    पदार्थ -
    (यदा) जब (इयम् वधू)इस वधू ने (गार्हपत्यम्) गृहस्थसम्बन्धी (अग्निम्) अग्नि को (पूर्वम्) पहिले से (असपर्यैत्) सेवन किया है। (अध) इसलिये (नारि) हे नारी ! (सरस्वत्यै) सरस्वती [विज्ञान के भण्डार परमेश्वर] को (च) और (पितृभ्यः) पितरों [पिता समान मान्यपुरुषों] को (नमः) नमस्कार (कुरु) कर ॥२०॥

    भावार्थ - जिस परमेश्वर की औरजिन महान् पुरुषों की कृपा से इस वधू ने हवन, शिल्प, अन्न, ओषधि आदि में अग्निकी विद्या को यथावत् जाना है, उस परमेश्वर और उन बड़े लोगों को वह कुलवधू सदाधन्यवाद देती रहे ॥२०॥

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