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  • अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 31
    सूक्त - आत्मा देवता - जगती छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त

    आ रो॑ह॒ तल्पं॑सुमन॒स्यमा॑ने॒ह प्र॒जां ज॑नय॒ पत्ये॑ अ॒स्मै। इ॑न्द्रा॒णीव॑ सु॒बुधा॒बुध्य॑माना॒ ज्योति॑रग्रा उ॒षसः॒ प्रति॑ जागरासि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । रो॒ह॒ । तल्प॑म् । सु॒ऽम॒न॒स्यमा॑ना । इ॒ह॒ । प्र॒ऽजाम् । ज॒न॒य॒ । पत्ये॑ । अ॒स्मै । इ॒न्द्रा॒णीऽइ॑व । सु॒ऽबुधा॑ । बुध्य॑माना । ज्योति॑:ऽअग्रा: । उ॒षस॑: । प्रति॑ । जा॒ग॒रा॒सि॒ ॥२.३१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ रोह तल्पंसुमनस्यमानेह प्रजां जनय पत्ये अस्मै। इन्द्राणीव सुबुधाबुध्यमाना ज्योतिरग्रा उषसः प्रति जागरासि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । रोह । तल्पम् । सुऽमनस्यमाना । इह । प्रऽजाम् । जनय । पत्ये । अस्मै । इन्द्राणीऽइव । सुऽबुधा । बुध्यमाना । ज्योति:ऽअग्रा: । उषस: । प्रति । जागरासि ॥२.३१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 31

    पदार्थ -
    [हे वधू !] तू (सुमनस्यमाना) प्रसन्नचित्त होकर (तल्पम्) पर्यङ्क पर (आ रोह) चढ़, ओर (इह) यहाँ [गृहाश्रम में] (अस्मै पत्ये) इस पति के लिये (प्रजाम्) सन्तान (जनय) उत्पन्नकर। (इन्द्राणी इव) इन्द्राणी [बड़े ऐश्वर्यवान् मनुष्य की पत्नी वा सूर्य कीकान्ति] के समान, (सु बुधा) सुन्दर ज्ञानवाली (बुध्यमाना) सावधान तू (ज्योतिरग्राः) ज्योति को आगे रखनेवाली (उषसः प्रति) प्रभातवेलाओं में (जागरासि) जागती रहे ॥३१॥

    भावार्थ - वधू को योग्य है किप्रसन्नचित्त होकर पति के साथ उच्च पद पर विराजकर उत्तम सन्तान उत्पन्न करे औरसावधान रहकर सूर्योदय से पहिले उठकर शारीरिक और आत्मिक उन्नति करे ॥३१॥मन्त्र ३१और ३२ महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि गृहाश्रमप्रकरण में व्याख्यात हैं ॥

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