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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 7/ मन्त्र 24
    सूक्त - अथर्वा, क्षुद्रः देवता - स्कन्धः, आत्मा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त

    यत्र॑ दे॒वा ब्र॑ह्म॒विदो॒ ब्रह्म॑ ज्ये॒ष्ठमु॒पास॑ते। यो वै तान्वि॒द्यात्प्र॒त्यक्षं॒ स ब्र॒ह्मा वेदि॑ता स्यात् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्र॑ । दे॒वा: । ब्र॒ह्म॒ऽविद॑: । ब्रह्म॑ । ज्ये॒ष्ठम् । उ॒प॒ऽआस॑ते । य: । वै । तान् । वि॒द्यात् । प्र॒ति॒ऽअक्ष॑म् । स: । ब्र॒ह्मा । वेदि॑ता । स्या॒त् ॥७.२४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्र देवा ब्रह्मविदो ब्रह्म ज्येष्ठमुपासते। यो वै तान्विद्यात्प्रत्यक्षं स ब्रह्मा वेदिता स्यात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्र । देवा: । ब्रह्मऽविद: । ब्रह्म । ज्येष्ठम् । उपऽआसते । य: । वै । तान् । विद्यात् । प्रतिऽअक्षम् । स: । ब्रह्मा । वेदिता । स्यात् ॥७.२४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 7; मन्त्र » 24

    पदार्थ -

    १. (यत्र) = जहाँ (देवाः) = देववृत्ति के (ब्रह्मविदः) = ब्रह्मज्ञानी पुरुष (ब्रह्म) = उस प्रभु को ही (ज्येष्ठम्) = सर्वश्रेष्ठरूप में (उपासते) = उपासित करते हैं-प्रभु को ही ज्येष्ठ मानकर पूजित करते हैं, वहाँ (य:) = जो भी (वै) = निश्चय से (तान्) = उन ब्रह्मज्ञानियों को (प्रत्यक्षं विद्यात्) = प्रत्यक्ष जानता है उनके सम्पर्क में आकर उनसे ज्ञान का श्रवण करता है, (स:) = वह भी (ब्रह्म) = सर्वोत्तम सात्विक व्यक्ति बनता है और (वेदिता स्यात्) = ज्ञानी होता है।

     

    भावार्थ -

    ब्रह्मविद् देव तो ब्रह्म को 'ज्येष्ठ' रूप में उपासित करते ही हैं, उनके सम्पर्क में आकर उनसे दिये गये ज्ञान का श्रोता भी सात्त्विक व ज्ञानी बनता है।

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