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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 7/ मन्त्र 30
    सूक्त - अथर्वा, क्षुद्रः देवता - स्कन्धः, आत्मा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त

    इन्द्रे॑ लो॒का इन्द्रे॒ तप॒ इन्द्रे॑ऽध्यृ॒तमाहि॑तम्। इन्द्रं॒ त्वा वे॑द प्र॒त्यक्षं॑ स्क॒म्भे सर्वं॒ प्रति॑ष्ठितम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रे॑ । लो॒का: । इन्द्रे॑ । तप॑: । इन्द्रे॑ । अधि॑ । ऋ॒तम् । आऽहि॑तम् । इन्द्र॑म् । त्वा॒ । वे॒द॒। प्र॒ति॒ऽअक्ष॑म् । स्क॒म्भे । सर्व॑म्‌ । प्रति॑ऽस्थितम् ॥७.३०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रे लोका इन्द्रे तप इन्द्रेऽध्यृतमाहितम्। इन्द्रं त्वा वेद प्रत्यक्षं स्कम्भे सर्वं प्रतिष्ठितम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रे । लोका: । इन्द्रे । तप: । इन्द्रे । अधि । ऋतम् । आऽहितम् । इन्द्रम् । त्वा । वेद। प्रतिऽअक्षम् । स्कम्भे । सर्वम्‌ । प्रतिऽस्थितम् ॥७.३०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 7; मन्त्र » 30

    पदार्थ -

    १. (सूर्यात् पुरा) = सूर्योदय से पूर्व ही, सूर्योदय से क्या? (उषस: पुरा) = उषाकाल से भी पहले नाना-'इन्द्र, स्कम्भ' आदि नामों से एक साधक (नाम जोहवीति) = उस शत्रुओं को नमानेवाले प्रभु को पुकारता है। इस 'नाम-जप' से प्रेरणा प्राप्त करके (यत्) = जब (अज:) = सब बुराइयों को क्रियाशीलता द्वारा परे फेंकनेवाला जीव [अज गतिक्षेपणयोः] (प्रथमम्) = उस सर्वाग्रणी व सर्वव्यापक [प्रथ विस्तारे] प्रभु के (संबभूव) = साथ होता है, अर्थात् प्रभु से अपना मेल बनाता है, तब (स:) = वह अज (ह) = निश्चय से (स्वराज्यम् इयाय) = स्वराज्य प्राप्त करता है-अपना शासन करनेवाला बनता है, इन्द्रियों का दास नहीं होता। वह उस स्वराज्य को प्राप्त करता है (यस्मात्) = जिससे (परम्) = बड़ा (अन्यत्) = दूसरा (भूतम्) = पदार्थ (न अस्ति) = नहीं हैं।

    भावार्थ -

    जब एक साधक ब्राह्ममुहूर्त में प्रभु का स्मरण करता है तब वह बुराइयों को दूर करके प्रभु के साथ मेलवाला होता है। यह प्रभु-सम्पर्क इसे इन्द्रियों का स्वामी [न कि दास] बनाता है। यह आत्मशासन-स्वराज्य-सर्वोत्तम वस्तु है।

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