अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 7/ मन्त्र 35
सूक्त - अथर्वा, क्षुद्रः
देवता - स्कन्धः, आत्मा
छन्दः - चतुष्पदा जगती
सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त
स्क॒म्भो दा॑धार॒ द्यावा॑पृथि॒वी उ॒भे इ॒मे स्क॒म्भो दा॑धारो॒र्वन्तरि॑क्षम्। स्क॒म्भो दा॑धार प्र॒दिशः॒ षडु॒र्वीः स्क॒म्भ इ॒दं विश्वं॒ भुव॑न॒मा वि॑वेश ॥
स्वर सहित पद पाठस्क॒म्भ: । दा॒धा॒र॒ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । उ॒भे इति॑ । इ॒मे इति॑ । स्क॒म्भ: । दा॒धा॒र॒ । उ॒रु । अ॒न्तरि॑क्षम् । स्क॒म्भ: । दा॒धा॒र॒ । प्र॒ऽदिश॑: । षट् । उ॒र्वी: । स्क॒म्भे । इ॒दम् । विश्व॑म् । भुव॑नम् । आ । वि॒वे॒श॒ ॥७.३५॥
स्वर रहित मन्त्र
स्कम्भो दाधार द्यावापृथिवी उभे इमे स्कम्भो दाधारोर्वन्तरिक्षम्। स्कम्भो दाधार प्रदिशः षडुर्वीः स्कम्भ इदं विश्वं भुवनमा विवेश ॥
स्वर रहित पद पाठस्कम्भ: । दाधार । द्यावापृथिवी इति । उभे इति । इमे इति । स्कम्भ: । दाधार । उरु । अन्तरिक्षम् । स्कम्भ: । दाधार । प्रऽदिश: । षट् । उर्वी: । स्कम्भे । इदम् । विश्वम् । भुवनम् । आ । विवेश ॥७.३५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 7; मन्त्र » 35
विषय - सर्वाधार 'स्कम्भ'
पदार्थ -
१. (स्कम्भ:) = उस सर्वाधार प्रभु ने ही इमे उभे द्यावापृथिवी-इन दोनों धुलोक व पृथिवीलोक को दाधार-धारण किया हुआ है। (स्कम्भ:) = स्कम्भ ने ही (उरु अन्तरिक्षं दाधार) = विशाल अन्तरिक्ष को धारण किया है। (स्कम्भः) = स्कम्भ ने ही (षट् उर्वीः प्रदिश:) = छह बड़ी दिशाओं को दाधार धारण किया है। (स्कम्भे) = उस सर्वाधार प्रभु के एकदेश में ही (इदं विश्वं भुवनम्) = यह सारा भुवन (आविवेश) = प्रविष्ट हुआ है। प्रभु इन सबमें व्याप्त हो रहे हैं-प्रभु की व्यासि से ही यह उस-उस दीति को धारण करता है।
भावार्थ -
प्रभु ही द्यावापृथिवी को, विशाल अन्तरिक्ष को तथा छह बड़ी दिशाओं को धारण किये हुए हैं। यह सारा ब्रह्माण्ड प्रभु के एकदेश में प्रविष्ट है और प्रभु की दीसि से दीप्त हो रहा है।
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