अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 7/ मन्त्र 43
सूक्त - अथर्वा, क्षुद्रः
देवता - स्कन्धः, आत्मा
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त
तयो॑र॒हं प॑रि॒नृत्य॑न्त्योरिव॒ न वि जा॑नामि यत॒रा प॒रस्ता॑त्। पुमा॑नेनद्वय॒त्युद्गृ॑णत्ति॒ पुमा॑नेन॒द्वि ज॑भा॒राधि॒ नाके॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतयो॑: । अ॒हम् । प॒रि॒नृत्य॑न्त्यो:ऽइव । न । वि । जा॒ना॒मि॒ । य॒त॒रा । प॒रस्ता॑त् । पुमा॑न् । ए॒न॒त् । व॒य॒ति॒ । उत् । गृ॒ण॒त्ति॒ । पुमा॑न् । ए॒न॒त् । वि । ज॒भा॒र॒ । अधि॑ । नाके॑ ॥७.४३॥
स्वर रहित मन्त्र
तयोरहं परिनृत्यन्त्योरिव न वि जानामि यतरा परस्तात्। पुमानेनद्वयत्युद्गृणत्ति पुमानेनद्वि जभाराधि नाके ॥
स्वर रहित पद पाठतयो: । अहम् । परिनृत्यन्त्यो:ऽइव । न । वि । जानामि । यतरा । परस्तात् । पुमान् । एनत् । वयति । उत् । गृणत्ति । पुमान् । एनत् । वि । जभार । अधि । नाके ॥७.४३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 7; मन्त्र » 43
विषय - वयन व उग्दिरण
पदार्थ -
१. (परिनत्यन्त्योः इव) = नृत्य-सा करती हुई (तयोः) = उन उषा व रात्रिरूप युवतियों में (यतरा परस्तात्) = कौन-सी परली है-कौन-सी पहले उत्पन्न हुई (अहं न विजानामि) = यह मैं नहीं जानता। इनका तो चक्र न जाने कब से चल ही रहा है। २. (पुमान्) = वह परम पुरुष प्रभु (एनत् वयति) = इस समस्त विश्वजाल को बुनता है, (पुमान् एनत् उत् गृणत्ति) = वह परम पुरुष ही इसे उधेड़ डालता है-इसे निगल लेता है। वह परम पुरुष ही (एनत्) = इसे (नाके अधि विजभार) = सुखमय आश्रय में अथवा आकाश में विहत करता है-धारण करता है।
भावार्थ -
यह उषा व रात्रि का चक्र 'अज्ञेय प्रारम्भ' वाला है। इस विश्वजाल को वे परम पुरुष प्रभु ही बुनते हैं व उधेड़ डालते हैं। वे ही आकाश में इसका धारण कर रहे हैं।
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