अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 7/ मन्त्र 34
सूक्त - अथर्वा, क्षुद्रः
देवता - स्कन्धः, आत्मा
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त
यस्य॒ वातः॑ प्राणापा॒नौ चक्षु॒रङ्गि॑र॒सोऽभ॑वन्। दिशो॒ यश्च॒क्रे प्र॒ज्ञानी॒स्तस्मै॑ ज्ये॒ष्ठाय॒ ब्रह्म॑णे॒ नमः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयस्य॑ । वात॑: । प्रा॒णा॒पा॒नौ । चक्षु॑: । अङ्गि॑रस: । अभ॑वन् । दिश॑: । य: । च॒क्रे । प्र॒ऽज्ञानी॑: । तस्मै॑ । ज्ये॒ष्ठाय॑ । ब्रह्म॑णे । नम॑: ॥७.३४॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्य वातः प्राणापानौ चक्षुरङ्गिरसोऽभवन्। दिशो यश्चक्रे प्रज्ञानीस्तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ॥
स्वर रहित पद पाठयस्य । वात: । प्राणापानौ । चक्षु: । अङ्गिरस: । अभवन् । दिश: । य: । चक्रे । प्रऽज्ञानी: । तस्मै । ज्येष्ठाय । ब्रह्मणे । नम: ॥७.३४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 7; मन्त्र » 34
विषय - प्रभु का विराट् देह
पदार्थ -
१. (यस्य) = जिसका (भूमिः) = यह पृथिवी (प्रमा) = पादमूल के समान है-पाँव का प्रमाण है, (उत) = और (अन्तरिक्षम्) = अन्तरिक्ष (उदरम्) = उदर है, (य: दिवं मूर्धानं चक्रे) = जिसने झुलोक को अपना मूर्धा [मस्तक] बनाया है। (यस्य) = जिसके (सूर्य:) = सूर्य (च) = और (पुनर्णवः चन्द्रमा:) = फिर फिर नया होनेवाला यह चन्द्र (चक्षुः) = आँख है। (य: अग्निं आस्यं चक्रे) = जिसने अग्नि को अपना मुख बनाया है। (यस्य वात: प्राणापानौ) = जिसके बायु ही प्राणापान हैं। (अङ्गिरसः चक्षुः अभवन्) = [अङ्गिरसं मन्यन्ते अङ्गानां यद्रस:-छां० १.२.१०] अङ्गरस ही उसकी आँख हुए। (दिश: य: प्रज्ञानी: चक्रे) = दिशाओं को जिसने प्रकृष्ट ज्ञान का साधन [श्रोत्र] बनाया। २. (तस्मै) = उस (ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः) = ज्येष्ठ ब्रह्म के लिए हम नतमस्तक होते हैं। प्रभु के लिए सूर्योदय से पूर्व सूर्योदय से ही क्या, उषाकाल से भी पूर्व उठकर प्रणाम करना चाहिए। यह प्रभु-नमन ही सब गुणों को धारण के योग्य बनाएगा।
भावार्थ -
यह ब्रह्माण्ड उस सर्वाधार प्रभु का देह है। इस ब्रह्माण्ड को वे ही धारण कर रहे हैं। इसके अङ्गों में उस प्रभु की महिमा को देखने का प्रयत्न करना चाहिए। इस महिमा को देखता हुआ साधक उस प्रभु के प्रति नतमस्तक होता है।
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