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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 7/ मन्त्र 28
    सूक्त - अथर्वा, क्षुद्रः देवता - स्कन्धः, आत्मा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त

    हि॑रण्यग॒र्भं प॑र॒मम॑नत्यु॒द्यं जना॑ विदुः। स्क॒म्भस्तदग्रे॒ प्रासि॑ञ्च॒द्धिर॑ण्यं लो॒के अ॑न्त॒रा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हि॒र॒ण्य॒ऽग॒र्भम् । प॒र॒मम् । अ॒न॒ति॒ऽउ॒द्यम् । जना॑: । वि॒दु॒: । स्क॒म्भ: । तत् । अग्रे॑ । प्र । अ॒सि॒ञ्च॒त् । हिर॑ण्यम् । लो॒के । अ॒न्त॒रा ॥७.२८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हिरण्यगर्भं परममनत्युद्यं जना विदुः। स्कम्भस्तदग्रे प्रासिञ्चद्धिरण्यं लोके अन्तरा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हिरण्यऽगर्भम् । परमम् । अनतिऽउद्यम् । जना: । विदु: । स्कम्भ: । तत् । अग्रे । प्र । असिञ्चत् । हिरण्यम् । लोके । अन्तरा ॥७.२८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 7; मन्त्र » 28

    पदार्थ -

    १. (जना:) = ज्ञानी लोग (हिरण्यगर्भम्) = [हिरण्यं वै ज्योतिः] सम्पूर्ण ज्योति जिसके गर्भ में है, उस प्रभु को (परमम्) = सर्वोत्कृष्ट व (अनति-उद्यम्) = 'जिसका स्तवन अत्युक्त हो ही नहीं सकता' ऐसा (विदुः) = जानते हैं। वे प्रभु 'वाचाम् अगोचर' हैं-बाणी का विषय बन ही नहीं सकते। २. वे (स्कम्भ:) = सर्वाधार प्रभु (अग्रे) = सृष्टि के प्रारम्भ में (तत् हिरण्यम्) = उस ज्योति को (लोके अन्तरा) = इस लोक के अन्दर (प्रासिञ्चत) = सींचते हैं। सूर्य, विद्युत् व अग्नि' आदि ज्योतियों को वे प्रभु ही तो बनाते हैं। ('त्रीणि ज्योतींषि सचते स षोडशी')

    भावार्थ -

    प्रभु हिरण्यगर्भ हैं-परम है-अनत्युध हैं। वे सर्वाधार प्रभु ही इस लोक में सूर्य आदि ज्योतियों का स्थापन करते हैं।

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