अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 7/ मन्त्र 31
सूक्त - अथर्वा, क्षुद्रः
देवता - स्कन्धः, आत्मा
छन्दः - मध्येज्योतिर्जगती
सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त
नाम॒ नाम्ना॑ जोहवीति पु॒रा सूर्या॑त्पु॒रोषसः॑। यद॒जः प्र॑थ॒मं सं॑ब॒भूव॒ स ह॒ तत्स्व॒राज्य॑मियाय॒ यस्मा॒न्नान्यत्पर॒मस्ति॑ भू॒तम् ॥
स्वर सहित पद पाठनाम॑ । नाम्ना॑ । जो॒ह॒वी॒ति॒ । पु॒रा । सूर्या॑त् । पु॒रा । उ॒षस॑: । यत् । अ॒ज: । प्र॒थ॒मम् । स॒म्ऽब॒भूव॑ । स: । ह॒ । तत् । स्व॒ऽराज्य॑म् । इ॒या॒य॒ । यस्मा॑त् । न । अ॒न्यत् । पर॑म् । अस्ति॑ । भू॒तम् ॥७.३१॥
स्वर रहित मन्त्र
नाम नाम्ना जोहवीति पुरा सूर्यात्पुरोषसः। यदजः प्रथमं संबभूव स ह तत्स्वराज्यमियाय यस्मान्नान्यत्परमस्ति भूतम् ॥
स्वर रहित पद पाठनाम । नाम्ना । जोहवीति । पुरा । सूर्यात् । पुरा । उषस: । यत् । अज: । प्रथमम् । सम्ऽबभूव । स: । ह । तत् । स्वऽराज्यम् । इयाय । यस्मात् । न । अन्यत् । परम् । अस्ति । भूतम् ॥७.३१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 7; मन्त्र » 31
विषय - नामस्मरण व स्वराज्य प्राप्ति
पदार्थ -
१. (सूर्यात् पुरा) = सूर्योदय से पूर्व ही, सूर्योदय से क्या? (उषस: पुरा) = उषाकाल से भी पहले नाना-'इन्द्र, स्कम्भ' आदि नामों से एक साधक (नाम जोहवीति) = उस शत्रुओं को नमानेवाले प्रभु को पुकारता है। इस 'नाम-जप' से प्रेरणा प्राप्त करके (यत्) = जब (अज:) = सब बुराइयों को क्रियाशीलता द्वारा परे फेंकनेवाला जीव [अज गतिक्षेपणयोः] (प्रथमम्) = उस सर्वाग्रणी व सर्वव्यापक [प्रथ विस्तारे] प्रभु के (संबभूव) = साथ होता है, अर्थात् प्रभु से अपना मेल बनाता है, तब (स:) = वह अज (ह) = निश्चय से (स्वराज्यम् इयाय) = स्वराज्य प्राप्त करता है-अपना शासन करनेवाला बनता है, इन्द्रियों का दास नहीं होता। वह उस स्वराज्य को प्राप्त करता है (यस्मात्) = जिससे (परम्) = बड़ा (अन्यत्) = दूसरा (भूतम्) = पदार्थ (न अस्ति) = नहीं हैं।
भावार्थ -
जब एक साधक ब्राह्ममुहूर्त में प्रभु का स्मरण करता है तब वह बुराइयों को दूर करके प्रभु के साथ मेलवाला होता है। यह प्रभु-सम्पर्क इसे इन्द्रियों का स्वामी [न कि दास] बनाता है। यह आत्मशासन-स्वराज्य-सर्वोत्तम वस्तु है।
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