अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 7/ मन्त्र 26
सूक्त - अथर्वा, क्षुद्रः
देवता - स्कन्धः, आत्मा
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त
यत्र॑ स्क॒म्भः प्र॑ज॒नय॑न्पुरा॒णं व्यव॑र्तयत्। एकं॒ तदङ्गं॑ स्क॒म्भस्य॑ पुरा॒णम॑नु॒संवि॑दुः ॥
स्वर सहित पद पाठयत्र॑ । स्क॒म्भ: । प्र॒ऽज॒नय॑न् । पु॒रा॒णम् । वि॒ऽअव॑र्तयत् । एक॑म् । तत् । अङ्ग॑म् । स्क॒म्भस्य॑ । पु॒रा॒णम् । अ॒नु॒ऽसंवि॑दु: ॥७.२६॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्र स्कम्भः प्रजनयन्पुराणं व्यवर्तयत्। एकं तदङ्गं स्कम्भस्य पुराणमनुसंविदुः ॥
स्वर रहित पद पाठयत्र । स्कम्भ: । प्रऽजनयन् । पुराणम् । विऽअवर्तयत् । एकम् । तत् । अङ्गम् । स्कम्भस्य । पुराणम् । अनुऽसंविदु: ॥७.२६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 7; मन्त्र » 26
विषय - स्कम्भ का एक अङ्ग 'पुराण'
पदार्थ -
१. (यत्र) = जहाँ (स्कम्भ:) = वे सर्वांधार प्रभु (प्रजनयन्) = इस सृष्टि की उत्पत्ति के हेत से (पुराणम्) = प्रवाहरूप से सनातन प्रधान [प्रकृति] को (व्यवर्तयत्) = निवृत्त करते हैं-विविध रूपों में परिवर्तित करते हैं। वहाँ ज्ञानी पुरुष (तत् पुराणम्) = उस सनातन प्रधान को (स्कम्भस्य) = उस सर्वाधार प्रभु का ही (एकं अङ्गम्) = एक अङ्ग (अनुसंविदुः) = अनुसन्धान करते हुए सम्यक् जानते हैं। इस प्रधान [Matter] का भी अन्तिम स्वरूप सामर्थ्य-शक्ति [energy] ही है और यह सामर्थ्य प्रभु का ही तो अङ्ग है-गुण है।
भावार्थ -
प्रकृति' कभी विकृति के रूप में और कभी फिर प्रकृति के रूप में चली आती हुई 'पुराण' [सन्तान] है। प्रभु इसी का विवर्तन करते हुए सृष्टि को जन्म देते हैं। यह पुराण प्रकृति भी अन्तत: सामर्थ्य के रूप में होती हुई उस प्रभु का ही एक अङ्ग है।
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