अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 7/ मन्त्र 38
सूक्त - अथर्वा, क्षुद्रः
देवता - स्कन्धः, आत्मा
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त
म॒हद्य॒क्षं भुव॑नस्य॒ मध्ये॒ तप॑सि क्रा॒न्तं स॑लि॒लस्य॑ पृ॒ष्ठे। तस्मि॑न्छ्रयन्ते॒ य उ॒ के च॑ दे॒वा वृ॒क्षस्य॒ स्कन्धः॑ प॒रित॑ इव॒ शाखाः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठम॒हत् । य॒क्षम् । भुव॑नस्य । मध्ये॑ । तप॑सि । क्रा॒न्तम् । स॒लि॒लस्य॑ । पृ॒ष्ठे । तस्मि॑न् । श्र॒य॒न्ते॒ । ये । ऊं॒ इति॑ । के । च॒ । दे॒वा: । वृ॒क्षस्य॑ । स्कन्ध॑: । प॒रित॑:ऽइव । शाखा॑: ॥७.३८॥
स्वर रहित मन्त्र
महद्यक्षं भुवनस्य मध्ये तपसि क्रान्तं सलिलस्य पृष्ठे। तस्मिन्छ्रयन्ते य उ के च देवा वृक्षस्य स्कन्धः परित इव शाखाः ॥
स्वर रहित पद पाठमहत् । यक्षम् । भुवनस्य । मध्ये । तपसि । क्रान्तम् । सलिलस्य । पृष्ठे । तस्मिन् । श्रयन्ते । ये । ऊं इति । के । च । देवा: । वृक्षस्य । स्कन्ध: । परित:ऽइव । शाखा: ॥७.३८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 7; मन्त्र » 38
विषय - तपसि क्रान्तं, सलिलस्य पृष्ठे
पदार्थ -
१. (भुवनस्य मध्ये) = सारे ब्रह्माण्ड में [ब्रह्माण्ड के अन्दर] वे (महद्यक्षम्) = महान् पूजनीय प्रभु स्थित हैं। सब पिण्डों में ओत-प्रोत सूत्र वे प्रभु ही तो हैं । (तपसि क्रान्तम्) = वे प्रभु तप में सबसे आगे बढ़े हुए हैं-सबको लाँघ गये हैं। वे (सलिलस्य) = [सत् लीनं अस्मिन्] प्रलयकाल में यह सब सत्तावाला जगत् जिसमें लीन हो जाता है, उस प्रधान [महद् ब्रह्म] के (पृष्ठे) = पृष्ठ पर ये प्रभु स्थित हैं-प्रकृति के अधिष्ठाता हैं। ('मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्') । २. (येउ) = के (च देवा:) = और जो कोई भी देव हैं, वे (तस्मिन्) = उस प्रभु में ही (छ्यन्ते) = आश्रय करते हैं, इसी प्रकार आश्रय करते हैं (इव) = जैसे कि (वृक्षस्य) = वृक्ष के (स्कन्धः) = तने के (परित:) = चारों ओर (शाखा:) = शाखाएँ आश्रित होती हैं।
भावार्थ -
वे प्रभु इस ब्रह्माण्ड के एक-एक पिण्ड में ओत-प्रोत सूत्र के समान हैं। वे तपोमय प्रभु ही प्रकृति के अधिष्ठाता है। उन प्रभु में ही सब देव आधारित हो रहे हैं-उस महान् देव से ही इन्हें देवत्व प्राप्त हो रहा है।
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