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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 7/ मन्त्र 42
    सूक्त - अथर्वा, क्षुद्रः देवता - स्कन्धः, आत्मा छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त

    त॒न्त्रमेके॑ युव॒ती विरू॑पे अभ्या॒क्रामं॑ वयतः॒ षण्म॑यूखम्। प्रान्या तन्तूं॑स्ति॒रते॑ ध॒त्ते अ॒न्या नाप॑ वृञ्जाते॒ न ग॑मातो॒ अन्त॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त॒न्त्रम् । एके॒ इति॑ । यु॒व॒ती इति॑ । विरू॑पे इति॒ विऽरू॑पे । अ॒भि॒ऽआ॒क्राम॑म् । व॒य॒त॒: । षट्ऽम॑यूखम् । प्र । अ॒न्या । तन्तू॑न् । ति॒रते॑ । ध॒त्ते । अ॒न्या । न । अप॑ । वृ॒ञ्जा॒ते॒ इति॑ । न । ग॒मा॒त॒: । अन्त॑म् ॥७.४२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तन्त्रमेके युवती विरूपे अभ्याक्रामं वयतः षण्मयूखम्। प्रान्या तन्तूंस्तिरते धत्ते अन्या नाप वृञ्जाते न गमातो अन्तम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तन्त्रम् । एके इति । युवती इति । विरूपे इति विऽरूपे । अभिऽआक्रामम् । वयत: । षट्ऽमयूखम् । प्र । अन्या । तन्तून् । तिरते । धत्ते । अन्या । न । अप । वृञ्जाते इति । न । गमात: । अन्तम् ॥७.४२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 7; मन्त्र » 42

    पदार्थ -

    १. (एके) = कोई दो (युवती) = एक-दूसरे से नित्य संगत [यु मिश्रणे] (विरूपे) = तमः व प्रकाशमय विरुद्धरूपवाली उषा व रात्रिरूप तरुणियाँ (अभ्याक्रामम्) = बार-बार आ-आ और जा-जाकर (पण्मयूखम्) = छह दिशाओं व छह ऋतुओंवाले विश्वरूप (तन्त्रम्) = जाल को (वयतः) = बुन रही हैं। २. इनमें से (अन्या) = एक उषारूप युवति (तन्तून) = सूर्यकिरणरूप तन्तुओं को (प्रतिरते) = फैलाती है, (अन्या) = दूसरी रात्रिरूप युवति (धत्ते) = उन सब किरणों को अपने अन्दर समेट लेती है। (न अपवृकञ्जाते) = वे दोनों कभी अपने कार्य को नहीं छोड़ती-विश्राम नहीं लेती, (न अन्तं गमातः) = न ही कार्य के अन्त तक पहुँचती हैं। उषा और रात्रि के रूप में यह कालचक्र चलता ही रहता है।

    भावार्थ -

    उषा व रात्रिरूप युवतियों द्वारा छह ऋतुओंवाला कालरूप जाल बुना जा रहा है, निरन्तर बुना जा रहा है-पर यह बुनाई चल ही रही है-इसका कहीं अन्त ही नहीं आता।

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