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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 7/ मन्त्र 41
    सूक्त - अथर्वा, क्षुद्रः देवता - स्कन्धः, आत्मा छन्दः - आर्षी त्रिपदा गायत्री सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त

    यो वे॑त॒सं हि॑र॒ण्ययं॑ तिष्ठन्तं सलि॒ले वेद॑। स वै गुह्यः॑ प्र॒जाप॑तिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । वे॒त॒सम् । हि॒र॒ण्यय॑म् । तिष्ठ॑न्तम् । स॒लि॒ले । वेद॑ । स: । वै । गुह्य॑: । प्र॒जाऽप॑ति: ॥७.४१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो वेतसं हिरण्ययं तिष्ठन्तं सलिले वेद। स वै गुह्यः प्रजापतिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । वेतसम् । हिरण्ययम् । तिष्ठन्तम् । सलिले । वेद । स: । वै । गुह्य: । प्रजाऽपति: ॥७.४१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 7; मन्त्र » 41

    पदार्थ -

    १. [क] (तस्य) = उसका (तमः अपहतम्) = अन्धकार सुदूर विनष्ट हो जाता है-उसका अज्ञान विनष्ट होकर उसका जीवन प्रकाशमय हो जाता है। [ख] (सः) = वह (पाप्मना) = पाप से (व्यावृत्त:) = दूर [हटा हुआ] होता है। [ग] (तस्मिन्) = उसमें वे (सर्वाणि) = सब (ज्योतीषि) = ज्योतियाँ होती हैं (यानि त्रीणि) = जो तीन (प्रजापतौ) = प्रजारक्षक प्रभु में हैं। ये ज्योतियाँ इसके जीवन में शरीर के स्वास्थ्य की दीसि के रूप में, मन के नैर्मल्य के रूप में तथा मस्तिष्क की ज्ञानज्योति के रूप में प्रकट होती हैं। २. उस व्यक्ति के जीवन में ये ज्योतियों प्रकट होती हैं, (य:) = जोकि (सलिले) = [सत् लीनम् अस्मिन्] यह कार्यजगत् जिसमें लीन होकर रहता है, उस प्रकृति में (तिष्ठन्तम्) = स्थित हुए-हुए (हिरण्ययम्) = इस चमकीले [हिरण्मय] (वेतसम्) = [ऊतं स्यूतं] परस्पर सम्बद्ध लोक लोकान्तरोंवाले संसार को वेद-जानता है और जो यह जानता है कि (स:) = वह (वै) = निश्चय से (प्रजापति:) = प्रजापालक प्रभु (गुह्याः) = मेरी हृदय-गुहा में ही स्थित है। इसप्रकार जाननेवाला व्यक्ति अन्धकार व पाप से दूर होकर ज्योतिर्मय जीवनवाला बनता है।

    भावार्थ -

    जो व्यक्ति इस चमकीले, परस्पर सम्बद्ध लोक-लोकान्तरोंवाले, प्रकृतिनिष्ठ संसार को जानता है तथा प्रभु को हृदयस्थ रूपेण प्रतीत करता है, वह अन्धकार से ऊपर उठता है, पाप से दूर होता है तथा प्रभु की ज्योतियों को प्राप्त करके "स्वस्थ, निर्मल व दीप्स' जीवनवाला बनता है।

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