यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 24
ऋषिः - गृत्समद ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - आर्षी पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
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आ वि॒श्वतः॑ प्र॒त्यञ्चं॑ जिघर्म्यर॒क्षसा॒ मन॑सा॒ तज्जु॑षेत। मर्य्य॑श्री स्पृह॒यद्व॑र्णोऽअ॒ग्निर्नाभि॒मृशे॑ त॒न्वा जर्भु॑राणः॥२४॥
स्वर सहित पद पाठआ। वि॒श्वतः॑। प्र॒त्यञ्च॑म्। जि॒घ॒र्मि॒। अ॒र॒क्षसा॑। मन॑सा। तत्। जु॒षे॒त॒। मर्य्य॑श्रीरिति॒ मर्य्य॑ऽश्रीः। स्पृ॒ह॒यद्व॑र्ण॒ इति॑ स्पृह॒यत्ऽव॑र्णः। अ॒ग्निः। न। अ॒भि॒मृश॒ इत्य॑भि॒ऽमृशे॑। त॒न्वा᳕। जर्भु॑राणः ॥२४ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ विश्वतः प्रत्यञ्चज्जिघर्म्यरक्षसा मनसा तज्जुषेत । मर्यश्री स्पृहयद्वर्णाऽअग्निर्नाभिमृशे तन्वा जर्भुराणः ॥
स्वर रहित पद पाठ
आ। विश्वतः। प्रत्यञ्चम्। जिघर्मि। अरक्षसा। मनसा। तत्। जुषेत। मर्य्यश्रीरिति मर्य्यऽश्रीः। स्पृहयद्वर्ण इति स्पृहयत्ऽवर्णः। अग्निः। न। अभिमृश इत्यभिऽमृशे। तन्वा। जर्भुराणः॥२४॥
विषय - राजा को उत्तेजित करके उसे अग्नि के समान तेजस्वी बनाना ।
भावार्थ -
जिस प्रकार अग्नि में घृत का आसेचन करके उसको प्रज्वलित और अधिक दीप्तिमान् किया जाता है उसी प्रकार हे राजन् ! मैं ( विश्वतः ) सब ओर से ( प्रत्यञ्चं ) शत्रु के प्रति आक्रमण करनेवाले तुझको (आजिधर्मि ) सब प्रकार से उत्तेजित, प्रदीप्त करूं । वह राजा ( तत् ) इस प्रकार प्रेम से दिये उत्तेजना सामग्री को ( अरक्षसा ) निर्विघ्न, राक्षस या क्रूर स्वभाववाले दुष्ट पुरुष से विपरीत, सज्जनस्वभावयुक्त, ( मनसा ) चित्त से ( जुषेत ) स्वीकार करे । वह ( अग्निः ) अग्रणी, राजा ( मर्यंश्रीः ) मनुष्यों द्वारा आश्रय करने योग्य या मनुष्यों के बीच विशेष शोभावान्, उनका शिरोमणिस्वरूप और ( स्पृहयद्-वर्णः ) प्रेमयुक्त पुरुषों द्वारा अपना नेता चुना गया, या कान्तिमान् अग्नि के समान तेजस्वी ( तत्वा ) अपने विस्तृत शक्ति से या अपने स्वरूप से ( जर्भुराणः ) अंगों को ऊपर नीचे नमाता हुआ, लचकती ज्वालाओं से ( अग्निः ) अभि जिस प्रकार अति तीक्ष्ण होकर ( अभिमृशे न ) स्पर्श करने के योग्य नहीं होता उसको कोई छू नहीं सकता उसी प्रकार वह भी युद्ध में जब अति तीक्ष्ण होकर अपने गात्र नमाता या पैतरे चलता है तब ( अग्निः ) आग के समान तेजस्वी होकर ( अभिमृशे न ) किसी भी द्वारा अभिमर्शन, या तिरस्कार करने योग्य नहीं रहता । उसका कोई अपमान नहीं कर सकता ॥ शत० ६ । ३ । ३ । १५ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
गृत्समद ऋषिः । अग्निर्देवता। आर्षी पंक्तिः । पञ्चमः ॥
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