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  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 31
    ऋषिः - गृत्समद ऋषिः देवता - जायापती देवते छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    संव॑साथास्व॒र्विदा॑ स॒मीची॒ऽउर॑सा॒ त्मना॑। अ॒ग्निम॒न्तर्भ॑रि॒ष्यन्ती॒ ज्योति॑ष्मन्त॒मज॑स्र॒मित्॥३१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम्। व॒सा॒था॒म्। स्व॒र्विदेति॑ स्वः॒ऽविदा॑। स॒मीची॒ऽइति॑ स॒मीची॑। उर॑सा। त्मना॑। अ॒ग्निम्। अ॒न्तः। भ॒रि॒ष्यन्ती॒ऽइति॑ भरि॒ष्यन्ती॑। ज्योति॑ष्मन्तम्। अज॑स्रम्। इत् ॥३१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सँवसाथाँ स्वर्विदा समीची उरसा त्मना । अग्निमन्तर्भरिष्यन्ती ज्योतिष्मन्तमजस्रमित् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सम्। वसाथाम्। स्वर्विदेति स्वःऽविदा। समीचीऽइति समीची। उरसा। त्मना। अग्निम्। अन्तः। भरिष्यन्तीऽइति भरिष्यन्ती। ज्योतिष्मन्तम्। अजस्रम्। इत्॥३१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 31
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    भावार्थ -

    ( स्वर्विदा ) सुख को प्राप्त करनेवाले ( उरसा ) उरःस्थल से उरःस्थल को और ( त्मना ) पूर्ण देह से ( समीची ) पूर्ण देह को आलिंगन करते हुए एक दूसरे से ( ज्योतिष्मन्तम् ) तेजोयुक्त, शुद्ध, ( अजस्रम् ) अविनाशी, ( अग्निम् ) तेज या वीर्य को ( अन्तः भरिष्यन्ती ) गर्भ के भीतर धारण करते हुए स्त्री पुरुष जिस प्रकार ( सं वसाथाम् ) एकत्र संगत होते हैं, गृहस्थ बनकर सन्तानोत्पत्ति करते हैं, उसी प्रकार हे राज-प्रजाजनो ! आप दोनों ( स्वर्विदा ) एक दूसरे को सुख प्रदान करते हुए ( उरसा ) राजा अपने उरस्थल से अर्थात् क्षात्रबल से और प्रजाजन ( त्मना ) अपने वैश्य भाग से ( ज्योतिष्मन्तम् ) तेजस्वी ( अजस्रम् इत् ) और अविनाशी, अक्षय (अग्निम् ) ऐश्वर्य को ( भरिष्यन्ती ) धारण करते हुए ( समीची ) एक दूसरे से संगत, परस्पर सुबद्ध रहकर ( सं वसाथाम् ) एकत्र होकर रहो, एक दूसरे की रक्षा करो ॥ शत० ६ । ४ । २ । ११ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    प्रजापतिः साध्या वा ऋषयः।पुष्करपर्णकृष्णाजिने जायापती वा देवते । निचृदनुष्टुप् । गांधारः ॥

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