यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 74
ऋषिः - जमदग्निर्ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
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यदत्त्यु॑प॒जिह्वि॑का॒ यद्व॒म्रोऽअ॑ति॒सर्प॑ति। सर्वं॒ तद॑स्तु ते घृ॒तं तज्जु॑षस्व यविष्ठ्य॥७४॥
स्वर सहित पद पाठयत्। अत्ति॑। उ॒प॒जिह्वि॑केत्यु॑प॒ऽजिह्वि॑का। यत्। व॒म्रः। अ॒ति॒सर्प॒तीत्य॑ति॒ऽसर्प॑ति। सर्व॑म्। तत्। अ॒स्तु॒। ते॒। घृ॒तम्। तत्। जु॒ष॒स्व॒। य॒वि॒ष्ठ्य॒ ॥७४ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यदत्त्युपजिह्विका यद्वम्रोऽअतिसर्पति । सर्वन्तदस्तु ते घृतन्तज्जुषस्व यविष्ठ्य ॥
स्वर रहित पद पाठ
यत्। अत्ति। उपजिह्विकेत्युपऽजिह्विका। यत्। वम्रः। अतिसर्पतीत्यतिऽसर्पति। सर्वम्। तत्। अस्तु। ते। घृतम्। तत्। जुषस्व। यविष्ठ्य॥७४॥
विषय - उपजापकारिणी संस्था का वम्री के दृष्टान्त से वर्णन।
भावार्थ -
( यत् ) जो पदार्थ भी ( उपजिह्विका ) दीमक ( अत्ति ) काठ खाजाती है और (यत्) जो पदार्थ ( वम्रः ) बड़ा दीमक ( अतिसर्पति ) लग जाता है वह भी जिस प्रकार आग में घी के समान तीव्रता से प्रज्वलित होता है उसी प्रकार हे राजन् ! ( उपजिह्निका ) शत्रु के बीच उपजाप करनेवाली संस्था और ( यत् । जो कुछ खाजाती है ( वम्रः ) दीमक के समान समस्त वृत्तान्त को राजा के सन्मुख वमन करनेवाला चरविभाग ( यत् ) जिस पदार्थ तक भी ( अति सर्पति ) पहुँच जाय (तत् सर्व) वह सब । तेष्ट घृतम् अस्तु ) तेरे लिये यशो जनक एवं तेजोवर्धक ही हो । हे ( यविष्ठ्य ) बलवान् राजन् ! ( तत् जुषस्व ) उसको तू सेवन कर ॥ शत० ६ । ६ । ३ । ६ ॥ स्त्री पक्ष में- हे पुरुष ( उपजिह्निका ) जिह्ना को वश करनेहारी निलोभ स्त्री जो पदार्थ खाये और जो ( वम्रः ) प्राणोद्वार बाहर आवे वह सब मुझे भी पुष्टिकारक हो ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
जमदग्निर्ऋषिः । अग्निर्देवता । विराड्नुष्टुप् । गांधारः ॥
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