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  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 34
    ऋषिः - भारद्वाज ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः
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    तमु॑ त्वा पा॒थ्यो वृषा॒ समी॑धे दस्यु॒हन्त॑मम्। ध॒न॒ञ्ज॒यꣳ रणे॑रणे॥३४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम्। ऊ॒ इत्यूँ॑। त्वा॒। पा॒थ्यः। वृषा॑। सम्। ई॒धे॒। द॒स्यु॒हन्त॑म॒मिति॑ दस्यु॒हन्ऽत॑मम्। ध॒न॒ञ्ज॒यमिति॑ धनम्ऽज॒यम्। रणे॑रण॒ इति॒ रणे॑ऽरणे ॥३४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तमु त्वा पाथ्यो वृषा समीधे दस्युहन्तमम् । धनञ्जयँ रणेरणे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    तम्। ऊ इत्यूँ। त्वा। पाथ्यः। वृषा। सम्। ईधे। दस्युहन्तममिति दस्युहन्ऽतमम्। धनञ्जयमिति धनम्ऽजयम्। रणेरण इति रणेऽरणे॥३४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 34
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    भावार्थ -

    ( पाथ्यः वृषा) पाथस्=अन्तरिक्ष में उत्पन्न, वर्षण समर्थ वायु जिस प्रकार विद्युत् रूप अग्नि को संघर्षण द्वारा मेघों के जलों में उत्पन्न करता है उसी प्रकार ( पाध्यः ) राष्ट्रपालन के समस्त मार्गों का उत्तम ज्ञाता, ( वृषा ) सब पर उत्तम व्यवस्था-बन्धन करने वाला विद्वान् ( दस्युहन्तमम् ) प्रजा के नाशकारी, चोर डाकुलों के सब से प्रबल विनाशक, ( रणेरणे धनञ्जयम् ) प्रत्येक संग्राम में ऐश्वर्य धन के विजय करने हारे ( तम् त्वा उ ) उस तुझको ही ( सम्-ईधे ) युद्धादि में भली प्रकार प्रदीप्त करता है, पराक्रम से युद्ध करने के लिये उत्तेजित करता है ॥ शत ६ । ४ । २ । ४ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    भरद्वाज ऋषिः । अग्निर्देवता । निचृद् गायत्री । षड्जः स्वरः ॥

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