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  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 70
    ऋषिः - सोमाहुतिर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः
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    द्र्व॑न्नः स॒र्पिरा॑सुतिः प्र॒त्नो होता॒ वरे॑ण्यः। सह॑सस्पु॒त्रोऽअद्भु॑तः॥७०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द्र्व॑न्नः इति॒ द्रुऽअ॑न्नः। स॒र्पिरा॑सुति॒रिति॑ स॒र्पिःऽआ॑सुतिः। प्र॒त्नः। होता॑। वरे॑ण्यः। सह॑सः। पु॒त्रः। अद्भु॑तः ॥७० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    र्द्वन्नः सर्पिरासुतिः प्रत्नो होता वरेण्यः । सहसस्पुत्रोऽअद्भुतः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    द्र्वन्नः इति द्रुऽअन्नः। सर्पिरासुतिरिति सर्पिःऽआसुतिः। प्रत्नः। होता। वरेण्यः। सहसः। पुत्रः। अद्भुतः॥७०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 70
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    भावार्थ -

    ( द्ववन्नः ) अग्नि जिस प्रकार काष्ठों को जलाता है वे ही उसके अन्न हैं । इसी प्रकार मनुष्य भी ( द्रवन्नः ) 'द्रु' ओषधि वनस्पतियों का आहार करने हारा है । ( सर्पिरासुतिः ) अग्नि जिस प्रकार घी से बढ़ता है इसी प्रकार तू भी घृत के सेवन से वृद्धि को प्राप्त होने वाला अथवा सर्पि, वीर्य को आसेचन करने में समर्थ है। वह (प्रत्नः ) सदा से ( वरेण्यः ) सदा स्वीकार करने योग्य, ( होता ) वीर्य आदि का आधानकर्त्ता, एवं पत्नी का ग्रहीता है। वह ( सहसः पुत्रः ) बल से उत्पन्न एवं बलवान् पुरुष से उत्पन्न पुत्र ( अद्भुतः ) आश्चर्यजनक गुण, कर्म, स्वभाव वाला होता है ॥ शत० ६ । ६ । २ । १४ ।। राजा के पक्ष में -- पृथिवी रूप उखा में राजा रूप अग्नि (द्रवन्नः ) काष्ठादि के जलाने वाले अग्नि के समान तेजस्वी, ( सर्पिरासुति: ) तेज से उत्पन्न ( प्रत्नः वरेण्यः होता ) सदा से वरण करने योग्य, सबका दाता, प्रतिग्रहीता (सहसः ) अपने बल पराक्रम से युक्त ( पुत्रः ) पुरुषों का दुःखों से त्राण करने में समर्थ ( अद्भुतः ) आश्चर्यकारी प्रतापवान् है । इसी प्रकार स्त्री रूप उखा में ओषधि वनस्पतियों का परिणाम भूत वीर्य, तेजोमय स्वीकार करने योग्य गर्भ में आहुतिप्रद है। वह बल से उत्पन्न आश्चर्यकारी है, जो पुत्र रूप से उत्पन्न होता है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    सोमाहुतिर्भार्गव ऋषिः । अग्निर्देवता । विराड् गायत्री । षड्जः ॥

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