यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 18
ऋषिः - मयोभूर्ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
1
आ॒गत्य॑ वा॒ज्यध्वा॑न॒ꣳ सर्वा॒ मृधो॒ विधू॑नुते। अ॒ग्निꣳ स॒धस्थे॑ मह॒ति चक्षु॑षा॒ निचि॑कीषते॥१८॥
स्वर सहित पद पाठआ॒गत्येत्या॒ऽऽगत्य॑। वा॒जी। अध्वा॑नम्। सर्वाः॑। मृधः॑। वि। धू॒नु॒ते॒। अ॒ग्निम्। स॒धस्थ॒ इति॑ स॒धस्थे॑। म॒ह॒ति। चक्षु॑षा। नि। चि॒की॒ष॒ते॒ ॥१८ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आगत्य वाज्यध्वानँ सर्वा मृधो विधूनुते । अग्निँ सधस्थे महति चक्षुषा नि चिकीषते ॥
स्वर रहित पद पाठ
आगत्येत्याऽऽगत्य। वाजी। अध्वानम्। सर्वाः। मृधः। वि। धूनुते। अग्निम्। सधस्थ इति सधस्थे। महति। चक्षुषा। नि। चिकीषते॥१८॥
विषय - विद्वान नेता की योग्य अश्व से तुलना ।
भावार्थ -
जिस प्रकार ( वाजी ) वेगवान् अश्व (अध्वानम् ) मार्ग पर आकर अपनी सब थकावटों को झाङ फेंकता है उसी प्रकार ( वाजी )बलवान् राजा ( अध्वानम् आगत्य ) राष्ट्र को प्राप्त करके ( सर्वाः मृधः ) समस्त संग्रामकारी शत्रुओं को ( विधूनुते ) कंपा देने में समर्थ होता है । और ( महति ) बड़े महत्व युक्त प्रतिष्ठा के ( सधस्थे ) अपने योग्य स्थान पर ही (अग्निम् ) ज्ञानवान् तेजस्वी पुरुष को ( चक्षुषा ) अपनी आंखों से ( निचिकीषते ) देख लेता है । या ( चक्षुषा ) दर्शन सामर्थ्य से युक ( अग्नि ) विद्वान् को उस पद पर ( नि चिकीषते ) नियुक्त करता है । शत० ६।३।३।८॥ राजा बलपूर्वक शत्रुओं का दमन करके प्रजा के शासन कार्य पर विद्वान् को अपना स्थानापन्न नियुक्त करे ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
मयोभुव ऋषयः । अग्निर्देवता । निचृदनुष्टुप । गांधारः॥
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