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  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 56
    ऋषिः - सिन्धुद्वीप ऋषिः देवता - अदितिर्देवता छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    सि॒नी॒वा॒ली सु॑कप॒र्दा सु॑कुरी॒रा स्वौ॑प॒शा। सा तुभ्य॑मदिते म॒ह्योखां द॑धातु॒ हस्त॑योः॥५६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सि॒नी॒वा॒ली। सु॒क॒प॒र्देति॑ सुऽकप॒र्दा। सु॒कु॒री॒रेति॑ सुऽकुरी॒रा। स्वौ॒प॒शेति॑ सुऽऔप॒शा। सा। तुभ्य॑म्। अ॒दि॒ते॒। म॒हि॒। आ। उ॒खाम्। द॒धा॒तु॒। हस्त॑योः ॥५६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सिनीवाली सुकपर्दा सुकुरीरा स्वौपशा । सा तुभ्यमदिते मह्योखान्दधातु हस्तयोः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सिनीवाली। सुकपर्देति सुऽकपर्दा। सुकुरीरेति सुऽकुरीरा। स्वौपशेति सुऽऔपशा। सा। तुभ्यम्। अदिते। महि। आ। उखाम्। दधातु। हस्तयोः॥५६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 56
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    भावार्थ -

    हे ( अदिते ) अखण्डित प्रजातन्तुरूप आनन्दवाली गृहणी ! हे (महि ) पूजनीय ! जो ( सिनीवाली ) प्रेमबन्धन से युक्त, ( सुकपर्दा ) उत्तम केशवाली, ( सुकुरीरा ) उत्तम आभूषणवाली, (स्वौपशा ) उत्तम अंगोंवाली है (सा) वह ( तुभ्यम् ) तेरे लिये ( हस्तयोः ) हाथ में ( उखाम् इच ) वेग के समान ( उखाम् ) 'उखा' अर्थात् प्रजापति के सन्तान प्रसव के कर्म या गर्भ को ( दधातु )धारण करे ॥ शत ६ । ५ । १ । १० ॥ अर्थात् सासों के घर में सुन्दर सुभुषित, सुकुमारियां आवें और वे गर्भ धारण कर सन्तान उत्पन्न करें । `उखा` -आत्मा वा उखा । श० ६ । ५ । ३ । ४ ॥ उदरम् उखा। श० ७ । ५ । १ । ३८ ॥ योनिर्वा उखा । श० ७ । ५ । २ । २ ॥ इमे वै लोका उखा । श० ६ । ५ । २ । १७ ॥ प्राजापत्यम् एतत् कर्म यदुखा। श० ६ । ५ । २ । १७ ॥ ब्रह्मपक्ष में - हे अदिते - अखण्ड आनन्दमय ब्रह्मशक्ते ! ( तुभ्यम् ) तेरे प्राप्त करने के लिये ( सिनीवाली ) सर्वनियमकारिणी ( सुकपर्दा ) सुखमयी, ( सुकुरीरा ) उत्तम कर्ममयी, ( स्वौपशा ) उत्तम योग निदा, समाधि में समाहित, ( सा ) वह चित्त स्थिति ( उखां आदधातु ) अर्ध्व पद को प्राप्त करनेवाले आत्मा को सदा धारण करे । राष्ट्रपक्ष में --हे (अदिते ) अखण्ड शासन शक्ते ! सिनीवाली नामक सभा ! उत्तम कपर्द = अर्थात् राज्य प्रबन्धवाली वह राजनीति उत्तम कर्मवाली, उत्तम व्यवस्थावाली, तेरे समस्त पृथिवी, निवासी लोगों को हाथ में कलसी के समान धारण करे ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    प्रजापतिः साध्या वा ऋषयः।अदितिर्देवता । विराड् अनुष्टुप् । गांधारः स्वरः॥

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